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ग़ज़ल -चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा

212      212    212     212

रात जगता रहा दिन में सोता रहा

चाँद के ही  सरीखे से होता रहा

 

बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर

चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा

 

उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे

बारी बारी से अपनों को खोता रहा

 

रस्म मैंने निभायी नहीं है मगर

दिल में रिश्तों को अपने संजोता रहा

 

जो न मांगा मिला मुझको सौगात में

जिसको चाहा वो मुश्किल से होता रहा

 

मैंने अपने गले से लगाया जिसे

पीठ पर वो ही खंजर चुभोता रहा

 

अमित कुमार दुबे मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 6:39pm

आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार

Comment by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 6:38pm

आदरणीय नीलेश जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका

Comment by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 6:38pm

आ0 राजेश जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 6:37pm

आदरणीय narendrasinh chauhan जी बेहद शुक्रिया आपका

Comment by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 6:36pm

आदरणीय मदन मोहन जी आपका हार्दिक धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 8:14am

बहुत बढ़िया अमित भाई  इस रचना के लिये दाद कुबूल फरमायें, रचना पर कुछ सार्थक चर्चाएँ भी हुई हैं उनपर भी थोड़ा विचार करें शुभकामनाएँ l

Comment by Sushil Sarna on July 9, 2014 at 7:54pm

बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा .... वाआआआआह बेहद उम्दा शेर .... सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 9, 2014 at 7:32pm

बहुत ख़ूब ...आपने बह्र 2122      1221        2212 ऐसे लिखी है ..मात्राए यही हैं लेकिन अरकान 212/212/212/212 ऐसा लिखेंगे 
बाक़ी आ. राजेश कुमारी जी ने सुझाव दिए हैं वो गौर करने जैसे हैं ...सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 9, 2014 at 5:39pm

बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर

चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा

उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे

बारी बारी से अपनों को खोता रहा

 अच्छे अशआर हुए हैं बहुत- बहुत बधाई अच्छी ग़ज़ल है मतले के उला  और बेहतर कर सकते हैं   रात के बाद भर या को  की कमी खल रही है 

Comment by Madan Mohan saxena on July 9, 2014 at 3:50pm

उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा

बहुत सुन्दर गजल ,हार्दिक बधाई

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