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तेरी कान्हा बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग माया का जाल, दर्प के दरपन टूटे

हुआ क्लेश का नाश, पीर सब हर ली मेरी

पर ये क्या बैराग? लुभाती है छवि तेरी !!

- बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 19, 2013 at 11:35am

कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे

हुआ क्लेश का नाश, पीर हर ली सब मेरी

ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी । 

भईया, मैंने कई कवि गण को पहले शब्द समूह को अंतिम शब्द समूह बनाते हुए पढ़ा है, उसी अनुसार "कान्हा तेरी" को अंतिम में प्रयोग किया है, क्या यह मान्य नहीं है ?

जग है माया जाल, छन्न से दरपन टूटे

ऐसे करने से बात बनेगी क्या ? 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2013 at 11:25am

जी, नियमतः,

१.  आप तो जानते ही हैं कि कुण्डलिया छंद का पहला शब्द या शब्दांश और उसका अंतिम शब्द या शब्दांश समान होते हैं.

२.  फिर, चौथे पद का विन्यास आपने बदल दिया है, वह भी रोला छंद के शब्द-संयोजन नियम के अनुसार नहीं है. दरपन शब्द चौकल है जो रोला के सम चरण का प्रारम्भ हो ही नहीं सकता. 

शुभेच्छाएँ


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 19, 2013 at 11:16am

//सुझाव के रूप में उद्दृत बंद तो कुण्डलिया छंद के विधान के हिसाब से ही ख़ारिज़ है !//
मैं समझा नहीं आदरणीय कृपया जरा और विस्तार दें । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2013 at 11:07am

कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे

हुआ क्लेश का नाश, हर ली पीर सब मेरी

ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी ।

यह सुझाव कैसे दिया गणेश भाई आपने ?  सुझाव के रूप में उद्दृत बंद तो कुण्डलिया छंद के विधान के हिसाब से ही ख़ारिज़ है ! ..

:-(((

कृपया देख लीजियेगा.

आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपने गणेश भाई के कहे का अनुमोदन तो किया है, लेकिन छंद प्रस्तुति के अंतिम पद को वही रहने दिया जो वस्तुतः मूल प्रस्तुति में है -- ये कैसा बैराग ? लुभाती है छवि तेरी .

सही कहा जाय, तो यही पद वाकई मूल प्रस्तुति का अति उत्कृष्ट पद है, किसी पंच लाइन की तरह, जो गोपिकाओं के ’बैराग’ में प्रतीत हो रहे विरोधाभास को समक्ष ला रहा है.

बैरागियों के हृदय में किसी उत्कृष्टतम की छवि का होना असंभव नहीं है, जबकि किसी छवि का ’लुभाना’ बैरागियों के लिए निषिद्ध है ! .. :-))) 

यही विरोध तो उक्त पद की सुन्दरता है जो कुण्डलिया की विशेषता बन कर उभरी है !

बृजेश भाई जी, आप द्वारा प्रस्तुत यह संभवतः कोई पहली कुण्डलिया छंद है ?!..  इसके संयतपन से आपके प्रति अपेक्षाएँ कई गुना बढ़ गयी हैं .. 

बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें, भाईजी.

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 19, 2013 at 10:36am

वाह बहुत ही सुन्दर कुण्डलिया ब्रिजेश जी ,मन मोहक मुग्ध करते भाव ,हार्दिक बधाई आपको | मैं भी आदरणीय गणेश जी कि बात का समर्थन करती हूँ अंतिम पंक्ति यूँ हो जाए तो चारचांद लग जाएँ ----ये कैसा बैराग ? लुभाती है छवि तेरी |  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 10:17am
आदरणीय बृजेश भाई , सुन्दर कुंडलिया रचना के लिये हार्दिक बधाई !!!!
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 19, 2013 at 10:16am

बेहद सुंदर भाव, अनुपम रचना बहुत बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 19, 2013 at 9:33am

कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे

हुआ क्लेश का नाश, पीर हर ली सब मेरी

ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी । 

वाह बृजेश भाई, बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है, बधाई स्वीकार करें । 

Comment by शकील समर on October 19, 2013 at 9:20am

खूबसूरत आदरणीय बृजेश नीरज सर। हालांकि मुझे शिल्प की जानकारी नहीं है, पर भाव से अभिभूम हूं। बधाई स्वीकार करें।

कृपया ध्यान दे...

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