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ग़ज़ल - ग़मों का दौर हूँ मैं

ग़ज़ल - ग़मों का दौर हूँ मैं

ग़मों का दौर हूँ मैं ,

ग़ज़ल है और हूँ मैं |

 

दशहरी गंध तुम हो ,

तुम्हारी बौर हूँ मैं |

 

तेरा हर तिल गिना है ,

नज़र का गौर हूँ मैं |

 

हो तुम सपनीली आँखें ,

उनींदी ठौर हूँ मैं |

 

मुझे सबने सहेजा ,

हाँ अंतिम कौर हूँ मैं |

 

सज़ा बाज़ार में हूँ ,

मगर सिरमौर हूँ मैं |

  

{अभिनव अरुण - मेरा लेखकीय नाम }

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on August 5, 2011 at 9:07pm
आभार आशीष जी आपकी अपनत्व भरी टिप्पणी मेरी कलम की सियाही है !!

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2011 at 10:35pm

इस ग़ज़ल के लिये बधाई..

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह.. सही है.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 3, 2011 at 9:16pm

मुझे सबने सहेजा ,

हाँ अंतिम कौर हूँ मैं |

 

बहुत ही खुबसूरत ख्यालात अभिनव अरुण जी, अच्छी ग़ज़ल कही है आपने, दशहरी गंध वाला शेर भी बहुत प्यारा है, बधाई कुबूल करे |

 

और हां.....आपने कहा कि...

बहुत कुछ नेट प्रेक्टिस के रूप में भी लिखा - कहा जाता है .. मेरा तो ये कहना है कि हर बड़े शायर का भी हर एक शेर बाकमाल नहीं होता !! फिर यह कोई एक्सक्यूज नहीं बाज़ार में हूँ ...

 

इसका मतलब बहुत प्रयास के बाद भी नहीं निकाल सका :-)

Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 7:37pm

kuchh bhi ho lekin ye ghazal waakai kamaal ki hai.

isme upasthit she'r swayam me purn hai.

दशहरी गंध तुम हो ,

तुम्हारी बौर हूँ मैं |

ye upma ki kya kahne.

wakai lajwaab hai.

bahut-bahut badhai.

Comment by Abhinav Arun on August 2, 2011 at 9:16am

बहुत कुछ नेट प्रेक्टिस के रूप में भी लिखा - कहा जाता है .. मेरा तो ये कहना है कि हर बड़े शायर का भी हर एक शेर बाकमाल नहीं होता !! फिर यह कोई एक्सक्यूज नहीं बाज़ार में हूँ ...

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