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जी बिकुल सही कहा आपने !! कभी मैंने भी एक विमर्श शुरू किया था फोरम में " नवोदित साहित्यकारों की उपेक्षा क्यों "| अच्छा है की कम से कम ओ बी ओ पर हम इन विन्दुओं पर चर्चा कर अपनी बात कह पा रहे हैं अन्यथा सुनने के अलावा कई मंचों पर हमारी कोई भूमिका रेखांकित नहीं हो पाती !
//रचनाकार की यह भी एक पीड़ा है की वह जो कहना चाहता हैं वह बात समाज तक पहुच नहीं पाती और उसकी प्रतिक्रिया नहीं मिल पाती | मेरी समझ से यह नयी साहित्यिक पीढी का दर्द भी है " अस्वीकार्यता का दर्द " न पढ़े -- देखे जाने का दर्द //
इस महत्त्वपूर्ण स्वीकारोक्ति के पीछे की टीस और पीड़ा को मैं गहराई से समझ सकता हूँ. साहित्य धर्म कई-कई कारणों से तथ्यपरक वैचारिकता से अक्सर विलग हो जाता है. काव्य-सृजन के माध्यम से सामाजिक उथलेपन को इंगित कर अर्थवान चर्चा की जा सकती है इस मान्यता को नकार देने के कई सामान मौजूद हैं. सहज और आसान या हल्के-फुल्के विन्दुओं और ऐसी भावनाओं पर कुछ कहना अधिक आकर्षित करता रहा है.
फिरभी, मैं इसे विड़ंबना नहीं कहूँगा. यह तो हमेशा से होता रहा है. गंभीर साहित्य का मान्य प्रतिशत भले कम हो किन्तु साहित्य-संस्कार और उसकी दृढ़ता की अगुआई ऐसा साहित्य ही करता है.
भाई गणेशजी इन विन्दुओं पर सारगर्भित चर्चा करा रहे हैं - ’क्या हम लेखकों का हक़ मार रहे हैं’ के माध्यम से.
भाई अरुणजी, मैं अपनी पाठकधर्मिता निभा रहा था. आपने मुझे मान दिया है,
इसका हार्दिक धन्यवाद.
... और श्री saurabh जी हुसैन साहब साहब के चित्र की समीक्षा भी सराहनीय है अगर आज मरहूम होते तो शायद बेहद खुश होते !!!
श्री saurabh जी मैं आपकी समीक्षा दृष्टि की गहराई का कायल हूँ आपने वह बातें भी मजबूती से कह और उठा दीं जो मैं रचना के द्वारा और चित्र को लगाकर प्रभावी ढंग से स्पष्ट नहीं कर सका ! सही है एक सच्चा समीक्षक एक लचर रचना को भी वज़नदार और प्रभावोत्पादक बना सकता है ! आभारी हूँ आपकी इस प्रोत्साहन देती पंक्तियों के लिए !! क्योंकि मेरे भीतर के रचनाकार की यह भी एक पीड़ा है की वह जो कहना चाहता हैं वह बात समाज तक पहुच नहीं पाती और उसकी प्रतिक्रिया नहीं मिल पाती | मेरी समझ से यह नयी साहित्यिक पीढी का दर्द भी है " अस्वीकार्यता का दर्द " न पढ़े -- देखे जाने का दर्द पुनः हार्दिक आभार !!
एक बात और, रचना के साथ चस्पाँ चित्र ने रचना की आवाज़ को विशेषरूप से प्रतिध्वनित किया है.
गाँधी की निःशब्द लाठी के समानान्तर ’दासकैपिटल’ को जीता खूँखार कौम्यूनिजम और मृत्यु जनता दानवी नाजीवाद.. और इस हड़बोंग से भौंचक हुआ बेतरतीब यथार्थ. हुसैन के कैनवास पर कभी ये भाव भी तिलमिलाया करते थे.
बग़ावत के तेवर अक्सर लसर जाते दीखते हैं यदि कारण स्पष्ट न हो. किन्तु समाज में व्याप गये वही-वहीपन, बेधती हुयी ऊब और चुनचुनाहट भरी वितृष्णा के विरुद्ध आवाज़ उठाती आपकी रचना की चीख निर्बीज कत्तई नहीं है. तभी इसकी ललकार और कटाक्ष की धार इतनी तीक्ष्ण है - ’..तुम्हारे उपनिषद और वेद सारे... चलो उनको उड़ायें/कि हम सब तितलियाँ हैं..फैलाते घोर अपसंस्कृतियों के पराग !..’
अपनी अनगढ़ परिपाटियों को ’नयी सभ्यता’ का नाम देकर भले हम कुछ देर के लिये आत्ममुग्ध हो लें, परन्तु, इसका खोखलपन गहरे सालता है, जब मन उचाट हो तन्हा होता है.
सही है, नंगई भौतिक हो या वैचारिक, उसकी टुच्चई देर तक बांधे रख ही नहीं सकती.
अरुण ’अभिनव’जी आपकी सार्थक विचार-प्रक्रिया का मैं सादर अनुमोदन करता हूँ. इस विचारपरक रचना के लिये हृदय से धन्यवाद.
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