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कहाँ हूँ, कौन हूँ मैं

कहाँ हूँ, कौन हूँ मैं

क्यूँ मद हवा सा डोल रहा

क्या कोई हवा का झोका हूँ जो

क्यूँ हर नियम को तोड़ चला ||

 

क्या बहते जल की धारा हूँ

जिधर चले उस ओर मार्ग बना

कल-कल, छल-छल की आवाज कर

शुद्ध तन-मन को मैं करता चला ||

 

क्या खुला आकाश हूँ मैं

जो अनंत, असीम है

जीव जन्म का बीज है जो

छोर का जिसके नहीं पता ||

 

क्या असीमित सी भू-धरा हूँ मैं

सहनता की सीमा नहीं

हर कर्म के भार को सहती पर

ना उफ़्फ़ तक की आवाज मैं करती ||

 

क्या दया, धर्म और कर्म से

निष्क्रियता प्राप्त हुआ मैं

घात विश्वासघात कर

मानव धर्म को भुला चुका मानव हूँ मैं ||

 

क्यूँ स्वार्थ में इतना डूबा चुका

तारोतार कर हर रिश्ते नाते मैं

स्वार्थ पूर्ति कर खुशी मनाता

ये किस तरह का मानव हूँ मैं ||

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by PHOOL SINGH on November 4, 2019 at 10:07am

भाई छोटेलाल मेरी रचना के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by PHOOL SINGH on November 4, 2019 at 10:07am

भाई बृजेश आपका कोटि कोटि आभर

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 28, 2019 at 5:57pm

अच्छी रचना आदरणीय...

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on September 27, 2019 at 7:01pm

आदरणीय फूल सिंह जी बहुत ही उम्दा कथ्य को दर्शाती उत्तम रचना के लिए बहुत बहुत बधाई

Comment by PHOOL SINGH on September 27, 2019 at 3:58pm

कबीर साहब आपका बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by Samar kabeer on September 25, 2019 at 11:58am

जनाब फूल सिंह जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।

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