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जिनके दिल मे कभी मेरा घर था

2122 1212 22

बाद मुद्दत खुला मुक़द्दर था ।
मेरी महफ़िल में चाँद शब भर था ।।

देख दरिया के वस्ल की चाहत ।।
कितना प्यासा कोई समंदर था ।।

जीत कर ले गया जो मेरा दिल।
हौसला वह कहाँ से कमतर था ।।

दर्द को जब छुपा लिया मैने ।
कितना हैराँ मेरा सितमगर था ।।

अश्क़ आंखों में देखकर उनके ।
सूना सूना सा आज मंजर था ।।

जंग इंसाफ के लिए थी वो ।
कब ज़माने से मौत का डर था ।।

वो भी पहचान कर गए खारिज़ ।
जिनके दिल में कभी मेरा घर था ।।

क्यों कहूँ दुश्मनों को अब क़ातिल ।
दोस्त के हाथ मे ही ख़ंजर था ।।

मिल गयी है उसे जमानत फिर ।
साफ इल्ज़ाम जिसके सर पर था ।।

यूँ ही जज़्बात आ गए लब तक ।
कह गये जो भी दिल के अंदर था ।।


--डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 22, 2018 at 12:07pm

क्या कहने आदरणीय एक और खूब ग़ज़ल..बधाई

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 21, 2018 at 5:28pm

शुक्रियः सर । कर दिया ।

Comment by Samar kabeer on December 21, 2018 at 1:56pm

' मिल गयी है उसे जमानत फिर ।
साफ इल्ज़ाम जिनके सर पर था'

सानी मिसरे में 'जिनके' की जगह "जिसके" कर लें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 21, 2018 at 1:05pm

भाई राज नावादवी जी बहुत बहुत शुक्रिया । आपेक्षित सुधार आ0 कबीर साहब की इस्लाह के अनुसार कर दिया गया है ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 21, 2018 at 12:47pm

आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ बहुत बहुत आभार । अत्यंत उपयोगी इस्लाह है सर अभी ठीक करता हूँ ।

Comment by राज़ नवादवी on December 21, 2018 at 11:41am

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, आदाब. ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें. बाक़ी आदरणीय समर कबीर साहब ने अपना  बहुमूल्य मार्गदर्शन प्रदान किया है. सादर 

Comment by Samar kabeer on December 20, 2018 at 2:37pm

जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

बाद मुद्दत के यह मुक़द्दर था'

इस मिसरे को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-

'बाद मुद्दत खुला मुक़द्दर था'

' प्यासा प्यासा कोई समंदर था'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'कितना प्यासा कोई समंदर था'

' जीत कर ले गया जो मेरा दिल।
इश्क़ का हौसला न कमतर था'

इस शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं है ।

' कुछ तो हैराँ मेरा सितमगर था'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'कितना हैराँ मेरा सितमगर था'

' बेख़ुदी में कदम बढ़े मेरे ।
कब ज़माने से मौत का डर था'

इस शैर का मफ़हूम साफ़ नहीं है ।

' लोग पहचान कर गए खारिज़'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'वो भी पहचान कर गए ख़ारिज'

' छोड़ कर चल दिया सफर में ही ।
हुस्न जो लाजवाब बेहतर था'

ये शैर हटा दें ।

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