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ग़ज़ल नूर की - जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,

२११२/ १२१२ // २११२/ १२१२ 
.
जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,
और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया.
.
मेरा सफ़र तवील है दूर हैं मंज़िलें मेरी
दुनिया फ़क़त सराय है रात हुई ठहर गया.
.
कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली
ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.
.
सारे तिलिस्म तोड़ कर अपनी अना को छोड़ कर
तेरे हवाले हो के मैं अपने ही पार उतर गया.   
.
पीठ थी रौशनी की ओर साये को देखते रहे
“नूर” से जब नज़र मिली, वक़्त वहीँ ठहर गया.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 7:39am

शुक्रिया आ. तेजवीर सिंह जी 

Comment by TEJ VEER SINGH on April 2, 2018 at 11:50am

हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी। बेहतरीन गज़ल।

कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली
ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.
.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2018 at 8:12pm

धन्यवाद आ. अजय जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2018 at 8:12pm

धन्यवाद आ. लक्षमण धामी जी 

Comment by Ajay Tiwari on April 1, 2018 at 5:16pm

आदरणीय निलेश जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 1, 2018 at 4:38pm

आ. भाई नीलेश जी, उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2018 at 8:48am

धन्यवाद आ समर सर, मैं तरमीम कर लेता हूँ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2018 at 8:47am

धन्यवाद आ मोहम्मद आरिफ साहब।

Comment by Samar kabeer on March 31, 2018 at 6:03pm

जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

तीसरे शैर के ऊला में 'मलमली' की जगह "मख़मली" कर लें तो मज़ा आ जाये ।

Comment by Mohammed Arif on March 31, 2018 at 5:50pm


जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया, 
और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया.   वाह! वाह!!  क्या ख़ूब मतला कहा है हुज़ूर ने । मज़ा आ गया ।

                  इस बेहतरीन और बेजोड़ ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय नीलेश जी ।

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