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इसी तरह से ग़ज़ल हुई है -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

121-22---121-22---121-22---121-22

 

मेरी पुरानी जो वेदना थी वो आज थोड़ी सबल हुई है

ज़रा सी फिर आँख डबडबाई इसी तरह से ग़ज़ल हुई है

 

खुदा के अपने ये नेक बन्दे कभी किसी का बुरा न करते

बता खुशी भी क्यों जिंदगी से गरीब के बेदखल हुई हैं

 

लगी है कैसी अजीब आदत न वक़्त देखें न कोई मौका

किसी की पीड़ा जहाँ भी देखी ये आँख रह-रह सजल हुई है

 

किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने

हुआ पराजित ये गाँव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है

 

मिली अंधेरों में रौशनी फिर दिखी कहर में मुहब्बतें तो

जहाँ पे कीचड़ सना हुआ था वहीँ तमन्ना कँवल हुई है

 

ये ज़िन्दगी तो हज़ार मौकों से इस कदर यूं भरी हुई है

किसी ने मौका ज़रा भी समझा, ये जिंदगी फिर सरल हुई है

 

मुआवजें हो तमाम लेकिन वही खसारा, वही हकीकत

जमीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है   

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 4:38pm

आदरणीय रवि जी, आपका अनुमोदन सदैव आश्वस्त करता है.ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 4:37pm

आदरणीय राहुल भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. 

Comment by Ravi Shukla on September 7, 2015 at 3:03pm

अादरणीय मिथिलेश जी । नमस्‍कार कई दिनों बाद लौटे है । आपकी एक नई ग़ज़ल और नई बह्र पर देख कर और पढ़ कर खुशी हुई

शेर दर शेर दिली दाद कुबूल करिये ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on September 7, 2015 at 2:52pm
सुन्दर गजल आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 4:02am

आदरणीय समीर कबीर जी, मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ........... आपके मार्गदर्शन अनुसार 'क़हर' करता हूँ....सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 4:00am

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. आपका अनुमोदन मेरे लिए बहुत मायने रखता है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 3:59am

आदरणीया तनूजा जी, ग़ज़ल के अनुमोदन,  सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.

Comment by Samar kabeer on September 6, 2015 at 10:24pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,'कहर' का जो अर्थ आपने बताया है वो उर्दू में "क़ह्र" है,लेकिन आप भी क्या करें,प्रचलन में यही है,ऐसे ही रहने दें लेकिन इस शब्द को जब भी लिखें 'क' के नीचे बिंदी लगा दें (क़) 'क' के नीचे बिंदी नहीं लगी थी इसलिये मैं इसका अर्थ 'कोहरा' समझा था ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 6, 2015 at 9:03pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , खूब सूरत मतला से शुरू सफर आखीर तक बहुत बढ़िया रहा । पूरी गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाई ।

Comment by Tanuja Upreti on September 6, 2015 at 4:20pm

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ,बधाई मिथिलेश जी

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