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कोई इसे नहीं पढ़ेगा

विकृत मस्तिष्क की

उथल पुथल को

तुम क्यों लिखते हो

किसे फ़साने के लिए

ये शब्द-जाल बुनते हो

आड़ी तिरछी रेखायें खींच

छिपा सके न

कुरूपता स्वंय की

अब किसे रिझाने को

व्यर्थ उसमें रंग भरते हो

सावधान अब कुछ मत लिखना

जो लिखा है उसे जला देना

तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा

कोई इसे नहीं पढ़ेगा

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 6:57pm

"Management  by exception"..हा ..हा... हा आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी !

Comment by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 6:54pm

आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया एवं प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 19, 2014 at 11:12am

तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा

कोई इसे नहीं पढ़ेगा--------- वाह !  एक सिद्धांत है "अपवाद का सिद्धांत "Management  by exception" देखिये छप भी गया और 

                                   सब पढ़ भी रहे है | कुशल व्यक्ति ही ऐसा कर सकते है | बहुत बहुत बधाई 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 19, 2014 at 11:00am

आपकी रचनाएँ प्रौढ़ता की तरफ बढ़ रही हैं, अच्छा लगा।

Comment by Hari Prakash Dubey on November 16, 2014 at 7:31pm

आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार आदरणीय राजेश कुमारी जी !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 16, 2014 at 7:00pm

बहुत खूब मन की खिन्नता में बुना शब्दों का ऐसा जाल कि सभी खिंचे चले आयें ये एक रचना कार की कुशलता का ही परिचायक है

बहुत सुन्दर  हार्दिक बधाई 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 16, 2014 at 12:26pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय 

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर

सादर प्रणाम !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 16, 2014 at 12:18pm

हरि प्रकाश जी

कभी कभी वही पठ्नीय  होता है जिसे हम अपठनीय समझते है i इसका उल्टा भी  होता है i मार्गदर्शक एक छोटा सा भाव अभिव्यक्ति पाकर मुखर हो उठा है i  सादर i

Comment by Hari Prakash Dubey on November 16, 2014 at 10:27am

इस रचना  पर प्रतिक्रिया  के लिए आपका हार्दिक आभार सोमेश कुमार जी , आप भी ये मानते होंगे की हर रचना कभी मन की कल्पना और कभी दूसरे व्यक्तियों ,परिस्तिथियों को देखकर जन्म लेती है ,यहाँ रचना का छपना महत्त्वपूर्ण नहीं है !

साभार

हरि प्रकाश दुबे 

Comment by somesh kumar on November 16, 2014 at 10:04am

हर तारा ध्रुव -तारा नहीं होता 

हर नाव का किनारा नहीं होता 

जो तुम्हारी आँख का तारा हो 

वो हर किसी का प्यारा नहीं होता |

परंतु मित्र ,सिर्फ इस उद्देश्य के लिए लिखना की सब आप के विचारों से सहमत हों ,लेखनी को बंधक बनाता है ,विविधता जीवन का सत्य है इसलिए वैचारिक-विविधता का मिलना स्वभाविक है ,जो आप की तरह विचार करेगा वह अवश्य सहमत होगा ,पढ़ेगा |

अंत में यही लिखना चाहूँगा -कर्म किए जा |

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