मन धीरे धीरे रो ले,
कोई नहीं है अपना,
मुख आँसुओं से धो ले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
मात –पिता के मृदुल बंधन में,
था जीवन सुखमय जाता !
ज्ञात नहीं भावी जीवन हित ,
क्या रच रहे थे विधाता !
अन भिज्ञ जगत के उथल पुथल,
क्या परिवर्तन वो निष्ठुर करता,
लख वर्तमान फूलों सी फिरती,
सखियों संग बाहें खोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
शुभ घड़ी बनी मम मात पिता ने,
वर संग बंधन ब्याह रचाया !
सजी पालकी लिए अपरिचित,
दूल्हा बन कर आया !
तेल चढ़ा द्वारे पूजा पर-
क्या अद्भुत उत्साह दिखाया,
पड़ी भावंरें माँग भरी,
दुल्हे ने दिल को खोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
नव सप्त श्रंगारों में सज धज,
दूल्हन बन घर पर आयी !
लाडली कभी थी माता की,
नव वधु बनी है पराई !
सासु मुखाकृति देख देख,
फूली थी नहीं समाती !
उल्लास छा गया घर आँगन में,
पायल की रन झुन को ले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
दो मिले अपरिचित नव बंधन में,
कैसा था उल्लास रहा !
पति के प्रसन्न मुख लख छिप- छिप,
हिय बीच समुन्नत हास रहा !
प्रथम –मिलन हित चले प्राण पति,
मिश्रित परिहास नयन थे !
पर विधि के खेल अनोखे हैं,
जाने कब किस पर डोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
दुर्भाग्य आज अब बनी लाज,
मुख खोल दिया सत्कार नहीं !
ऐहिक सुख का था भास् कहाँ,
जब किया क्षणिक अभिसार नहीं
क्या पता खोलेंगे सब बंधन ,
दुर्घटना में उनका निधन हुआ !
पति की आभा छिन गयी आज,
जीवन मैं अमा को घोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
सर्वस्व छीन ले चले संग,
सिन्दूर माथ की बिन्दीयाँ
बंधन,गुंजन ,कंगन के संग,
हरी हाथ की चूड़ियाँ !
मल्हार गया मनुहार गया,
झुन झुन पायल –स्वर सार गया !
बस आह दे गये जीवन में,
कर क्षार विषम विष घोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
कोई नहीं है अपना,
मुख आँसुओं से धो ले !
मन धीरे धीरे रो ले !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आपका हार्दिक आभार पूजा जी ।
आदरणीय श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी ,आपकी बात सत्य है ,पर मैं इस साईट पर नया होने के कारण प्रक्रिया समझ नहीं पाया ,आपका हार्दिक आभार .
आदरणीय हरि प्रकाश भाई,
बंधन - महोत्सव - 49 का विषय है शायद आप वहीं पोस्ट भी करना चाहते हों , महोत्सव - 49 को क्लिक कर रचना पुनः पोस्ट कर दीजिए , धन्यवाद , आपकी यह रचना बड़ी मार्मिक है
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