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मन क्षेत्र - आकाश सा विस्तृत

मन क्षेत्र  

आकाश सा विस्तृत... 

आकांक्षाओं के बिंब ,

बन 

भाव-बादल,  

करते 

कभी आहलादित  

कभी विकृत  

संपूर्ण अस्तित्व... 

बदल बदल स्वरूप 

बादल सम चंचल  

अस्थिर भाव 

कभी  

लाते भंवर 

तो कभी  

करते तृप्त  

अंतः मरुधर... 

पर 

आकाश 

कब बाँध सका है 

बादल की उड़ान को, 

या 

बादल कब छू सका है 

अनंत के हर निशान को... 

हर पल  

अनछुआ है 

अनंत अंबर  

बड़े से बड़े  

बादल की  

उपस्थिति विकृति या विस्मृति से 

निरंतर शांत  

मन क्षेत्र  

आकाश सा विस्तृत.....  

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 6:15pm

क्षण विशेष को अभिसिंचित करने के लिए बधाई.. .

इस पर आज दृष्टि पड़ी.. .  :-((


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 2, 2013 at 5:55pm

आदरणीय हरविंदर सिंह जी, राज नवादवी जी, कुमार गौरव जी, सतीश अग्निहोत्री जी, प्रदीप कुमार कुशवाहा जी, विजय निकोर जी... रचना मन क्षेत्र आप सबको पसंद आयी, और आपका उत्साहवर्धक अनुमोदन आशीष सम प्राप्त हुआ, इस हेतु आप सभी को हार्दिक आभार 

सादर.

Comment by vijay nikore on April 2, 2013 at 3:02pm

आज आपकी इस पुरानी कविता पर नज़र गई तो अभिभूत हुआ आपकी सोच से ...

 

आकाश

कब बाँध सका है

बादल की उड़ान को,

या

बादल कब छू सका है

अनंत के हर निशान को...

हर पल

अनछुआ है

अनछुआ शब्द अति प्रिय है।

साधुवाद!

विजय

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 1, 2012 at 3:47pm

बादल कब छू सका है 

अनंत के हर निशान को...

कभी नहीं ..

बधाई सादर 

 

Comment by Satish Agnihotri on September 25, 2012 at 4:19pm

मनमोहक रचना ....बधाई आपको

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 22, 2012 at 7:58am

मन क्षेत्र  

आकाश सा विस्तृत.....  

sundar rachna......

Comment by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 9:30pm

मन क्षेत्र  

आकाश सा विस्तृत... 

आकांक्षाओं के बिंब ,

बन 

भाव-बादल,  

करते 

कभी आहलादित  

कभी विकृत..

-- सुन्दर लय ताल से बहते शब्द, झरने की निनाद से कभी निर्बाध, कभी चट्टानों से आलिंगित. बधाई हो प्राची जी!   

Comment by Harvinder Singh Labana on September 21, 2012 at 7:47pm

Sunder ABhivyakti..

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