For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

जहाँ से यथार्थ की दहलीज

खत्म होती है

वहाँ से हसरतों का

सजा धजा बागीचा

शुरु होता है

जब भी कदम बढ़ाया

दहलीज फुफकार उठती है

यह कहकर कि

‘मत लांघना मुझे

मेरे भीतर सुरक्षित हो तुम

मेरे ही भीतर संरक्षित हो तुम

यह असत्य भी तो नहीं

इस दहलीज के भीतर

एक मकान है

जहाँ सुरक्षित है मेरी काया

जहाँ छू भी नहीं पता

कोई बुरी नजर का साया

और अस्तित्व?

हाँ!  अस्तित्व

सुरक्षित है

अलमारी के किसी रैक में

बिस्तर के किसी कोने में

फिर भी .....

हाँ फिर भी ..

लांघना है यह दहलीज

ताकि गिरवी रखी नीन्द

खौफ के उस निगोड़े महाजन से

छुड़ा सकूँ

जानती हूँ मैं भी

आसमान की सैर

उंगली पकड़्कर

नहीं होती

इसके लिए तो

ज़ज्बे का पंख उगाना होता

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

और आसमान की सैर पर जाना है

दहलीज तुम यहीं रहना

दरवाजे के कलेजे से

चिपकी हुई

लौटूंगी मैं

अपने साथ एक घर लेकर

तुम यहीं रहना ...

********

गुल सारिका 

Views: 633

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by pawan amba on May 17, 2013 at 8:30pm

हाँ!  अस्तित्व

सुरक्षित है

अलमारी के किसी रैक में

बिस्तर के किसी कोने में.......

दहलीज तुम यहीं रहना

दरवाजे के कलेजे से

चिपकी हुई

लौटूंगी मैं

अपने साथ एक घर लेकर

तुम यहीं रहना ...kya baat hai didi.....aap to bs aap hi ho...

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 2, 2012 at 3:47pm

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

और आसमान की सैर पर जाना

सुन्दर रचना. बधाई.

Comment by Bhawesh Rajpal on September 24, 2012 at 4:43pm

 

आसमान की सैर

उंगली पकड़्कर

नहीं होती

इसके लिए तो

ज़ज्बे का पंख उगाना होता

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

अति सुन्दर ! बहुत-बहुत बधाई !

Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 1:16pm

आपकी कविता ने जैसे सचमुच सीमाओं की देहलीज़ पार कर ली हो और सीधे सम्प्रेषण के पंखों पे उस निर्वात तक जा पहुँची जहाँ यथार्थ के अकिंचन पर बाध्यकारी सचों की मूर्तियां नहीं सजी हैं. सुन्दर शब्दों की भावों में पिरोई लड़ियाँ, बधाई हो सारिका जी! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 24, 2012 at 12:58pm

गुलसारिकाजी, आपकी प्रस्तुत रचना हर कुछ ऐसा साझा करती है जो आम नवयुवती के उद्गार हैं. किन्तु, आपके कहने का अंदाज़ भला लगा.  संवेदना और शब्द-संप्रेषण को आपने रचना के अंत तक संतुलित रखा है. आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

हार्दिक बधाइयाँ.

Comment by Brajesh Kant Azad on September 23, 2012 at 11:05pm

आदरणीया गुल सारिका जी बहुत बधाई, बहुत ही सरल और सहज वर्णन किया है मन के डर और उसको वश में करने का.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2012 at 6:49pm

//लांघना है यह दहलीज

ताकि गिरवी रखी नीन्द

खौफ के उस निगोड़े महाजन से

छुड़ा सकूँ//

आदरणीया गुल सारिका जी, बहुत ही उम्दा कथ्य आपकी इस रचना में निहित है, एक सरल प्रवाह रचना को और भी सौंदर्य प्रदान करता है | बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर, आपकी और प्रस्तुति तथा अन्य साथियों की रचनाओं पर आपके विचारों का इस मंच पर स्वागत है |

Comment by Gul Sarika Thakur on September 23, 2012 at 6:31pm

Adarniya Laxman prasaad Ladiwala jee....is rachna ko parhne aur us pr wichaar krne ke bahut bahut abhari hun ... lekin dahleez ke andar sadaiv ghr angan nahi hota ...agar hota to ghr lekar lautne ki baat hi kahee jati ...ghr to dil me bante hain aur dil me hi toot te hain .... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 23, 2012 at 6:19pm

बहुत सुन्दर बेहतरीन अभ्व्यक्ति जब अलमारी के किसी कोने  में सजा हुआ  अस्तित्व घुटन और दमन महसूस करने लगे तो दहलीज तो लांघनी ही पड़ेगी वाह क्या जबरदस्त भाव बधाई आपको 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 23, 2012 at 3:40pm

गुल सारिका झा जी रचना बेहद सुन्दर,  हार्दिक बधाई, पर एक सुझाव है -इस दहलीज के भीतर एक मकान है,

के बजाय दहलीज के भीतर "घर आँगन है" कहना ज्यादा ठीक है  | 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आयोजन की सफलता हेतु सभी को बधाई।"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार। वैसे यह टिप्पणी गलत जगह हो गई है। सादर"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार।"
3 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212 देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिलेझूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी…See More
4 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
5 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आपने अन्यथा आरोपित संवादों का सार्थक संज्ञान लिया, आदरणीय तिलकराज भाईजी, यह उचित है.   मैं ही…"
5 hours ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी बहुत शुक्रिया आपका बहुत बेहतर इस्लाह"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर बागपतवी जी, आपने बहुत शानदार ग़ज़ल कही है। शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल…"
7 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय जयहिंद जी, अपनी समझ अनुसार मिसरे कुछ यूं किए जा सकते हैं। दिल्लगी के मात्राभार पर शंका है।…"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आ. रिचा जी, अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आ. भाई जयहिंद जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
7 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service