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कवित्त पर एक प्रयास.

मारा गया फ़कीर जो गया वह रोटी लाने,
बहती थी नदिया वेग तेज बहुत था /
मचा हाहाकार कोहराम कोई नहि जाने,
हुआ पानी लहू का वेग तेज बहुत था /

दीप बुझे कई देखो बाती जैसे टूट गई,
यों बही पुरवाई झोंका तेज बहुत था /
सिमट गए मानव मूल्य माता रूठ गई,
पश्चिम की आंधी का झोंका तेज बहुत था /

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Comment by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 11:44pm

आदरणीय बागी जी

              सादर नमस्कार, यह कवित्त पर मेरा प्रथम प्रयास था. कुछ असमंजस भी था, बहुत डरते डरते मैंने इस रचना को प्रस्तुत किया है. आगे मै इसके प्रवाह पर भी नजर रखूंगा. आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 11:41pm

गौरव जी

          सादर, धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 11:40pm

आदरणीय सौरभ जी

                   सादर, अवश्य ही आपको कठिनाई महसूस हुई होगी. वर्ण गणना सही रखने के प्रयास में यह त्रुटी हुई है.

           मेरा प्रयास इन पंक्तियों में गरीब मानव के जीवन का कोई मोल ना रह जाने पर प्रकृति की खिन्नता को दर्शाना और अंतिम पंक्ति में इसके पीछे धनवानों में चमक दमक का प्रभाव बढ़ जाना. यही मै लिखने का प्रयास कर रहा था.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 11:33pm

फूलसिंह जी

              रचना के भाव सराहने के लिए. आभार.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 3, 2012 at 11:01pm

आदरणीय रक्ताले साहब, इस कवित्त में प्रवाह नहीं बन रहा , भाव अच्छे हैं किन्तु संयोजन का अभाव है, प्रयास पर बधाई स्वीकारें |

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 3, 2012 at 10:43pm

सुन्दर रचना आदरणीय रक्ताले सर.......बधाई.......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 3, 2012 at 10:37pm

इस कवित्त / मनहरण घनाक्षरी का कथ्य बहुत ही प्रभावी है, भाई अशोक जी.  हृदय से बधाई.यों, दूसरे पद के तीसरे-चौथे चरण का भाव बहुत स्पष्ट नहीं हुआ. संभवतः लिखने के बहाव में युक्ति-संगत संतुलन का अभाव हो गया.

सधन्यवाद

Comment by PHOOL SINGH on September 3, 2012 at 2:27pm

अशोक जी नमस्कार,

बहुत ही सुंदर भावाव्यक्ति..

फूल सिंह 

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