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करने को नित्य पाप जो-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२


करने को नित्य  पाप  जो  गंगा नहायेंगे
हम से अधिक न यार कभी पुण्य पायेंगे।१।
**
तन के धुलेंगे पाप न पावन जो मन हुआ
अंतस में ग्लानि होगी तो गंगा को आयेंगे।२।
**
कोसेेंगे एक दिन तो स्वयं अपने आप को
अपनी नजर से बोलिए क्या क्या छिपायेंगे।३।
**
हम को भले ही भाव न तुम दो अभी मगर
घन्टी बजा कलम  से  तो  हम ही जगायेंगे।४।
**
जिनको शऊर आया न दीपक जलाने का
कहते  हैं  रोशनी  को  वो  सूरज  उगायेंगे।५।
**
अब जिन के पाप ढोते यूँ बेबस धरा हुई
कहते हैं वो  ही  चाँद  पे  बस्ती बसायेंगे।६।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2021 at 6:53pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, सराहना व मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद।
इस मिसरे को यूँ देखिएगा-

/करने को लौट  पाप  जो  गंगा नहायेंगे
कैसे भला वो लोग अधिक पुण्य पायेंगे
// (यहाँ आशय यह है कि लोग मन से प्रायश्चित करने नहीं जाते । केवल तन धोकर आ जाते हैं)
.
//घन्टी बजा कलम  से  तो  हम ही जगायेंगे.....
(क्या यहाँ नया रूपक गढ़ना अनुचित है ?) सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 9, 2021 at 10:30am

आ. लक्ष्मण जी,
ग़ज़ल का कहन थोडा उलझा हुआ है ..
.
करने को नित्य  पाप  जो  गंगा नहायेंगे.... पाप करने के लिए कौन गंगा नहाता है??
हम से अधिक न यार कभी पुण्य पायेंगे.... इसमें ऐसा लग रहा है कि आप अपने यारों को आपसे कम पुण्यात्मा बता रहे हैं.
.
घन्टी बजा कलम  से  तो  हम ही जगायेंगे.....कलम से घण्टी बजाने का कोई रूपक मुझे ध्यान नहीं आता...
.
बाकी ग़ज़ल के लिए बधाई 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 4, 2021 at 1:26pm

प्रिय बहन सुचि जी, स्नेहाशीष ।गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 4, 2021 at 1:24pm

आ. भाई आज़ी तमाम जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप" on May 31, 2021 at 7:43pm
  • वाहः उत्कृष्ट सृजन लक्ष्मण जी। 
Comment by Aazi Tamaam on May 31, 2021 at 7:42pm

सादर प्रणाम आ धामी सर

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 31, 2021 at 4:35pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । आपकी उपस्थिति से गजल मुकम्मल हुई...आभार।गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए पुनः आभार..

Comment by Samar kabeer on May 31, 2021 at 2:57pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'कोसोगे एक दिन तो स्वयं अपने आप को
अपनी नजर से बोलिए क्या क्या छिपायेंगे'

इस शैर में शुतर गुरबा दोष है,ऊला में 'कोसोगे' को "कोसेंगे" कर लें ।

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