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Harash Mahajan's Blog – March 2018 Archive (5)

दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो

...

दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो,

महफ़िल भी हो ग़ज़लें भी हों फिर साज़ क्यूँ न हो ।

है प्यार अगर जुर्म मुहब्बत क्यूँ बनाई,

गर है खुदा तुझमें तो वो, हमराज़ क्यूँ न हो ।

रखते हैं नकाबों में अगर राज़-ए-मुहब्बत,

जो हो गई बे-पर्दा तो आवाज़ क्यूँ न हो ।

दुश्मन की कोई चोट न होती है गँवारा,

गर ज़ख्म देगा दोस्त तो नाराज़ क्यूँ न हो ।

संगीत की तरतीब में तालीम बहुत है,

फिर गीत ग़ज़ल में सही अल्फ़ाज़ क्यूँ न…

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Added by Harash Mahajan on March 24, 2018 at 3:30pm — 15 Comments

महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था

221 1221 1221 122

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महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था ।

तो नग़मा मुहब्बत का सुनाना ही नहीं था ।

रौशन किया जो हक़ से तुझे रोज़ ही दिल में,

वो तेरी निगाहों का निशाना ही नहीं था ।

कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,

ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।

है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,

सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।

होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ, 

मंदिर किसी…

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Added by Harash Mahajan on March 15, 2018 at 3:00pm — 21 Comments

छोटी सी ज़िन्दगी में किसे ख़ुश बता करूँ

221 2121 1221 212

***********

छोटी सी ज़िन्दगी में किसे ख़ुश बता करूँ,

ज़लता चराग़ हूँ मैं अँधेरे का क्या करूँ ।

कैसे सुनाऊँ सबको महब्बत की दास्ताँ,

या फिर बता दो दर्द वो कैसे सहा करूँ ।

ये माना ख़ुद की फ़िक्र में इतना नहीं सकूँ,

जो मिलता ज़ख्म-ए-ग़ैर के मरहम मला करूँ ।

दस्तक़ तू दे ऐ मौत, मज़ा तब है, हो नशा,

मैं जब खुदा के ध्यान में सिमरण किया करूँ ।

जब हो नसीब में ये तग़ाफ़ुल ये बेरुख़ी,

तो…

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Added by Harash Mahajan on March 12, 2018 at 6:27pm — 17 Comments

अगर माँगू तो थोड़ी सी नफ़ासत लेके आ जाना (इस्लाही)

1222 1222 1222 1222

अगर माँगू तो थोड़ी सी नफ़ासत लेके आ जाना,

मुहब्बत है तो दिल में तुम शराफ़त लेके आ जाना ।

रिवाज़-ओ-रस्म-ए-उल्फ़त को सनम तुम भूल जाना मत,

सफ़र ये आशिक़ी का है नज़ाक़त लेके आ जाना ।

जो दिल तेरा किसी भी ग़ैर के दिल में धड़कता हो,

मगर तुम मेरी ख़ातिर वो अमानत लेके आ जाना ।

वफ़ा के क़त्ल की साज़िश तुम्हारी भूल जाऊँ मैं,

अगर आओ तो अहसास-ए-नदामत लेके आ जाना ।

जो भेजे थे कभी अश्कों से लिखकर…

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Added by Harash Mahajan on March 5, 2018 at 2:30pm — 10 Comments

तरही ग़ज़ल : ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

212 212 212 212

...

दरमियाँ अब तेरे मेरे क्या रह गया,

फासला तो हुआ पर नशा रह गया ।

उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर

मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।

ज़ह्र मैं पी गया, बात ये, थी नहीं,

दर्द ये, मौत से क्यों ज़ुदा रह गया ।

मौत से, कह दो अब, झुक न पाऊँगा मैं,

सर झुकाने को बस इक खुदा रह गया ।

टूट कर फिर से बिखरुं, ये हिम्मत न थी,

इस जहाँ को बताता,…

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Added by Harash Mahajan on March 3, 2018 at 4:00pm — 14 Comments

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