कितने ही गिद्धमानव
आकाश में मुक्त होकर
उड़ रहे हैं
क्योंकि उनके मुँह पर
खून के निशान नहीं पाये गए
और तीन सौ रुपये चुराने वाला
अपनी सज़ा के इंतज़ार में
वर्षों जेल में सड़ता रहा
मैंने एक अवयस्क बलात्कारी को
हत्या करने के बाद इत्मीनान से
सुधारगृह जाते हुए देखा है
मैं क़ानून की क़ैदी हूँ ।
स्टोव हों या कि
बदले जमाने के गैस चूल्हे
बस बहू का आँचल थामते हैं
'न' सुनकर जगे पुरुषत्व के
नाखूनों से रिसते तेज़ाब से…
Added by Tanuja Upreti on July 15, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
क्यों भाई काँटे
शरीर ढूँढते रहते हो चुभने के लिए?
पैर से खींचकर निकाले गए
काँटे से मैंने पूछा
बस फैंकने को तत्पर हुई कि
वह बोल उठा
तुम मनुष्यों की
यही तो दिक़्क़त है
अपनी भूलों का दोष
तटस्थों पर मढ़ते आये हो
मैं कहाँ चल कर आया था
तुम्हारे पैरों तक ,चुभने को
मैं नहीं तुम्हारा पैर आकर
चुभा था मुझको
मैँ ध्यान मग्न पड़ा था
कि अचानक एक भारी सा पैर
आकर सीधा धँसा था
मेरे पूरे शरीर पर
उफ्फ वह घुटन भरी…
Added by Tanuja Upreti on June 5, 2016 at 10:30am — 7 Comments
हरे वृक्षों के बीच खडा एक ठूँठ।
खुद पर शर्मिन्दा, पछताता हुआ
अपनी दुर्दशा पर अश्रु बहाता हुआ।
पूछता था उस अनन्त सत्य से
द्रवित, व्यथित और भग्न हृदय से।
अपराध क्या था दुष्कर्म किया था क्या
मेरे भाग में यही दुर्दिन लिखा था क्या?
जो आज अपनों के बीच मैं अपना भी नही
उनके लिए हरापन सच, मेरे लिए सपना भी नही।
हरे कोमल पात उन्हें ढाँप रहे छतरी बनकर
कोई त्रास नहीं ,जो सूरज आज गया फिर आग उगलकर।
अपनी बाँह फैलाए वे जी रहे…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on May 30, 2016 at 4:37pm — 5 Comments
सज़दे में सर झुकता है मेरा
राह चलते जहाँभी दरगाह मिली
तुम्हारे मन भी तो इज़्ज़त है
मेरे शंकर और मेरे राम की
जब उर्स होता है तो मैं भी
आती हूँ चादर चढ़ाने को
दशहरे में तुम भी जाते हो
रावण जलाने को
हमें कहाँ हर वक्त याद रहता है
मज़हब अपना
हाँ सियासत नहीं भूलती
मैं हिन्दू तू मुसलमान है
अब ये अलग बात है कि
मैं अगर इज़्ज़त हूँ
अपने भारत की
तो तू भी
हिन्द का सम्मान है ।
तनूजा उप्रेती
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Tanuja Upreti on May 23, 2016 at 1:10pm — 2 Comments
Added by Tanuja Upreti on May 11, 2016 at 11:30am — 6 Comments
सड़क के किनारे छाँव देता
एक दायरे के भीतर कैद
खुद घुटता हुआ मगर
हमें साँसें देता हुआ वृक्ष
कंक्रीट की घेराबंदी से
छोटी सी सीमा रेखा
में बंधा हुआ वह पेड़
और पिजड़े मैं कैद
मासूम और बेबस पक्षी
दोनों में कितना साम्य है
दोनों ही जीवित हैं
लेकिन स्वतन्त्रता को खोकर
दोनों की ही हदें
मानव ने बाँध दी हैं
और अब वे बस हमारी
आवश्यकता का साधन हैं
लेकिन वृक्ष पक्षी से
कहीं अधिक बेबस…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on November 4, 2015 at 4:30pm — 8 Comments
“तुम ऐसा नहीं कर सकते आकाश, तुम इस तरह मुझे धोखा नहीं दे सकते I”
“परी मैं तुम्हें धोखा नहीं दे रहा हूँ मैं तो उल्टे तुम्हें सच बता रहा हूँ I अगर मैं चाहता तो दोनों रिलेशंस बनाये रखकर तुम्हें आसानी से चीट कर सकता था पर मैंने ऐसा नहीं किया क्योंकि मैं झूठ में विश्वास नहीं करता I जब हमारे रिश्ते में कुछ बचा ही नहीं है तो फिर इसे घिसटने का कोई मतलब नहीं है कम से कम अब तुम मुझसे आज़ाद होकर अपने जीवन की नयी शुरुआत तो कर सकती हो वैसे भी अगर यह सब हमारी शादी के बाद होता तो तुम्हें अधिक दुख…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on September 2, 2015 at 11:30am — 13 Comments
भेड़िए जैसे झपटते बच्चे
गिद्ध जैसे ताकते हुए
कुत्तों की मानिंद
खाना छीनते हुए बच्चे
एक कूड़े के ढेर पर
मैंने देखे थे वो
भेड़िये ,गिद्ध और
कुत्ते जैसे बच्चे
इंसान का शेर या हाथी
जैसा होना सुहाता है
किन्तु भूख जब उसे भेड़िया,
गिद्ध या कुत्ता बना देती है
और जब शिकार बचपन हो
तो आँखें शर्म से झुक जाती हैं
तब इस असमान बंटवारे पर
लज्जा आती है ,घृणा होती है
किसी ने तो खाना
बस फैंक…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on August 11, 2015 at 12:07pm — 11 Comments
पूरा घर सम्हालती बेटियाँ क्यों ससुराल आते ही
ऐसी लापरवाह हो जाती हैं कि चूनर आग पकड़ लेती है
खिलखिलाती बेटियाँ क्यों इतनी अवसन्न हो जाती हैं
कि ज़हर खा लेती हैं या पंखे से झूल जाती हैं
जिनके लिये आँसू बस रूठने का सबब हुआ करते थे
अब वे बेटियाँ हँसते हुए भी क्यों रो देती हैं
धर्म कर्म रीति नीति की बातें बहुत होती हैं
हर मंदिर में सुबह सवेरे देवी पूजित होती है
फिर क्यों उन्हीं बंद द्वारों के पीछे
लालच की वेदी पर निर्दोष हवि होती…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on August 1, 2015 at 11:30am — 9 Comments
विश्लेषण
फिर आज समय है विश्लेषण का
क्या खोया क्या पाया हमने
क्या अपराधी नहीं बने हम
विस्मृत कर बापू के सपने
डटे रहे जो निर्भय रण में
सत्य अहिंसा का संबल ले
डिगे तनिक न सत्य मार्ग से
अविजित दुरूह आत्मबल ले
पर उनकी संतान आज
सब भूल रही है
विचलित औ ' पथ भ्रष्ट
अधर में झूल रही है
स्वर्णिम भारत के सब सपने
पिघल रहे हैं
धनिक आज…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on July 15, 2015 at 10:30am — 6 Comments
ईश्वर तुम हो कि नहीं हो
इस विवाद में मन उलझाये बैठी हूँ
‘हाँ’ ‘ना’ के दो पाटों के बीच पिसी
कुछ प्रश्न उठाए बैठी हूँ
कि अगर तुम हो तो इतने
अगम, अगोचर और अकथ्य क्यों हो
विचारों के पार मस्तिष्क से परे
‘पुहुप बास तै पातरे’ क्यों हो
तुम्हें खोजने की विकलता ने
जब प्राप्य ज्ञान खँगाला
तो द्वैत, अद्वैत और द्वैताद्वैत ने
मुझको पूरा उलझा डाला
तुम सुनते हो यदि
या कि मुझे तुम सुन पाओ
एक प्रार्थना…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on May 14, 2015 at 4:35pm — 9 Comments
धरती रोती है ,मैंने देखा है धरती रोती है
छीज रहा उसका आँचल
बिखर रहा सारा संसार
त्रस्त कर रही उसको निस दिन
उसकी ही मानव संतान
विगत की तेजोमय स्मृतियाँ
वर्तमान में तीव्र विनाश
आगत एक भयावह स्वप्न
भग्न - बिखरती आस
पशु - पक्षी जीव वनस्पति
सब ही हैं उसकी संतति
पर मानव ने मान लिया
धरा को केवल अपनी संपत्ति
शक्ति मद में भूल गया
वह…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on April 20, 2015 at 10:00am — 20 Comments
आवरण कितने गाढ़े ,कितने गहरे
कई कई परतों के पीछे छिपे चेहरे
नकाब ही नकाब बिखरे हुए
दुहरे अस्तित्व हर तरफ छितरे हुए
कहीं हँसी दुख की रेखायें छिपाए है
तो कभी अट्टहास करुण क्रन्दन दबाए है
विनय की आड़ लिये धूर्तता
क्षमा का आभास देती भीरुता
कुछ पर्दे वक़्त की हवा ने उड़ा दिये
और न देखने लायक चेहरे दिखा दिये
आडम्बर को नकेल कस पाने का हुनर
मुश्किल बहुत है मगर
कुछ चेहरों में फिर…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on March 18, 2015 at 1:30pm — 2 Comments
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