ग़ुल अहसासों के ......
क्यों
कोई
अपना
बेवज़ह
दर्द देता है
ख़्वाबों की क़बा से
सांसें चुरा लेता है
ज़िस्म
अजनबी हो जाता है
रूह बेबस हो जाती है
इक तड़प साथ होती है
इक आवाज़
साथ सोती है
कुछ लम्स
रक्स करते हैं
कुछ अक्स
बनते बिगड़ते हैं
शीशे के गुलदानों में
कागज़ी फूलों से रिश्ते
बिना किसी
अहसास की महक के
सालों साल चलते हैं
फिर क्यों
इंसानी अहसासों के रिश्ते
ज़िंदा होते हुए…
Added by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 4:19pm — 6 Comments
कितना अच्छा होता .....
कितना अच्छा लगता है
फर्श पर
चाबी के चलते खिलौने देखकर
एक ही गति
एक ही भाव
न किसी से कोई गिला
न शिकवा
ऐ ख़ुदा
कितना अच्छा होता
ग़र तूने मुझे भी
शून्य अहसासों का
खिलौना बनाया होता
अपना ही ग़म होता
अपनी ही ख़ुशी होती
न लबों से मुस्कराहट जाती
न आँखों में नमी होती
सब अपने होते
हकीकत की ज़मीं न होती
ख़्वाबों का जहां न होता
बस ऐ ख़ुदा
तूने हमें भी वो चाबी अता की होती…
Added by Sushil Sarna on August 2, 2016 at 7:30pm — 24 Comments
इक माँ होती है ....
कितना ऊंचा
घोंसला बनाती है
नयी ज़िन्दगी का
ज़मीं से दूर
घर बनाती है
अपने पंखों से
अपने बच्चों को
हर मौसम के
कहर से बचाती है
न जाने कहाँ कहाँ से लाकर
अपने बच्चों को
दाना खिलाती है
पंख आते हैं
तो उड़ना सिखाती है
नए पंखों को
आसमां अच्छा लगता है
ज़मी से रिश्ता बस
सोने का लगता है
देर होते ही मां
घोंसले पे आती है
नहीं दिखते बच्चे
तो बैचैन हो जाती है
सांझ होते…
Added by Sushil Sarna on August 1, 2016 at 2:27pm — 14 Comments
1.
मैं
मेरा
हमारा
बीत गया
जीवन सारा
साँझ ने पुकारा
लपटों ने संवारा
2.
मैं
तुम
अधूरे
हैं अगर
देह देह की
प्रीत भाल पर
स्नेह चंदन नहीं
3.
हे
राम
तुम्हारा
करवद्ध
अभिनन्दन
प्रभु कृपा करो
हरो हर क्रन्दन
4.
क्या
जीता
क्या हारा
मैं निर्बल
मैं बेसहारा
प्रभु शरण लो
मैं अंश…
Added by Sushil Sarna on July 30, 2016 at 9:00pm — 5 Comments
यादें....
यादें भी
कितनी बेदर्द
हुआ करती हैं
दर्द देने वाले से ही
मिलने की दुआ करती हैं
अश्कों की झड़ी में
हिज्र की वजह
धुंधली हो जाती है
चाहतों के फर्श पर
आडंबर की काई
बिछ जाती है
दर्दीले सावन बरसते रहते हैं
फिसलन भरी काई पर
अश्क भी फिसल जाते हैं
अब सहर भी कुछ नहीं कहती
अब दामन में नमी नहीं रहती
ज़माने के साथ
प्यार के मायने भी
बदल गए हैं
अब प्यार के मायने
नाईट क्लब के अंधेरों में…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2016 at 2:53pm — 4 Comments
दिल के निहाँ ख़ाने में ....
लगता है शायद
उसके घर की कोई खिड़की
खुली रह गयी
आज बादे सबा अपने साथ
एक नमी का अहसास लेकर आयी है
इसमें शब् का मिलन और
सहर की जुदाई है
इक तड़प है, इक तन्हाई है
ऐ खुदा
तूने मुहब्बत भी क्या शै बनाई है
मिलते हैं तो
जहां की खबर नहीं रहती
और होते हैं ज़ुदा
तो खुद की खबर नहीं रहती
छुपाते हैं सबसे
पर कुछ छुप नहीं पाता
लाख कोशिशों के बावज़ूद
आँख में एक कतरा रुक…
Added by Sushil Sarna on July 28, 2016 at 2:00pm — 15 Comments
अधूरे सपने धोती रहीं .....
मैं तो जागी सारी रात
तूने मानी न मेरी बात
कैसी दी है ये सौगात
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं
झूमा सावन में ये मन
हिया में प्यासी रही अग्न
जलता विरह में मधुवन
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं.....
नैना कर बैठे इकरार
कैसे अधर करें इंकार
बैरी कर बैठा तकरार
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं
मन के उड़ते रहे विहग…
Added by Sushil Sarna on July 26, 2016 at 9:30pm — 5 Comments
उनकी शाम दे दो ....
आज
सहर में अजीब उजास है
हर शजर पर
समर के मेले हैं
सबा में अजीब सी
मदहोशी है
साँझ के कानों में
तारीक की सरगोशी है
शायद किसी को
मेरी तन्हाई पे
तरस आया है
किसके हैं लम्स
कौन मेरे करीब आया है
मुद्दतों की नमी ने
आज सब्र पाया है
लम्हे रुके से लगते हैं
अब्र झुके झुके लगते हैं
देखो ! तरीक के कन्धों पे
शाम झुकी है
सहर भी कुछ रुकी रुकी है
पसरती सम्तों में
पसरती…
Added by Sushil Sarna on July 25, 2016 at 4:10pm — 4 Comments
नशीली आग़ोश ....
अरसा हुआ तुमसे बिछुड़े हुए
ख़बर ही नहीं
हम किस अंधी डगर पर
चल पड़े
हमारी गुमराही पर तो
कायनात भी खफ़ा लगती है
बाद बिछुड़ने के
मुददतों हम
आईने से नहीं मिले
ख़ुद अपनी शक्ल से भी हम
नाराज़ लगते हैं
तुम्हें क्या खोया
कि अँधेरे हम पर
महरबान हो गए
यादों के अब्र
चश्मे-साहिल के
कद्रदान गए
दरमानदा रहरो की मानिंद
हमारी हस्ती हो गयी
इश्क-ए-जस्त की फ़रियाद
करें…
Added by Sushil Sarna on July 19, 2016 at 3:44pm — 14 Comments
नारी मन .....
एक लंबे
अंतराल के पश्चात
तुम्हारा इस घर मेंं
पदार्पण हुअा है
जरा ठहरो !
मुझे नयन भर के तुम्हें
देख लेने दो
देखूं ! क्या अाज भी
तुम्हारे भुजबंध
मेरी कमी महसूस करते हैं ?
क्या अाज भी
तुम्हारी तृषा
मे्रे सानिध्य के लिए
अातुर है ?
जरा रुको
मुझे शयन कक्ष की दीवारों से
उन एकांत पलों के
जाले उतार लेने दो
जहां अपनी नींदों को
दूर सुलाकर …
Added by Sushil Sarna on July 12, 2016 at 4:30pm — 6 Comments
दिलों मेंं लिपटे साये थे ....
दोनों उरों मेंं
हुई थी हलचल
जब दृग से दृग
टकराये थे
दृग स्पर्श से मौन हिया के
स्वप्न सभी मुस्काये थे
अधरों पर था लाज़ पहरा
लब न कुछ कह पाए थे
अवगुण्ठन मेंं वो अलकों के
कुछ सकुचे शरमाये थे
झुकी पलक के देख इशारे
हम मन मेंं मुस्काये थे
मधु पलों को सिंचित करने
स्नेह घन घिर अाये थे
हुअा सामना जब हमसे तो
वो सिमटे घबराये थे
हौले हौले कैद हुए हम
इक दूजे की बाहों मेंं…
Added by Sushil Sarna on July 6, 2016 at 10:24pm — 2 Comments
मुझे पूर्ण कर जाएगा.....
न जाने कितनी बार
मैं स्वयं को
दर्पण मेंं निहारती हूँ
बार बार
इस अास पर
खुद को संवारती हूँ
कि शायद
अाज कोई मुझे
अपना कह के पुकरेगा !
मेरी इस सोच से
मेरा विश्वास
डगमगाता क्यूँ है ?
क्या मैं दैहिक सोन्दर्य से
अपूर्ण हूँ ?
क्या मेरा वर्ण बोध
मे्रे भाव बोध के अागे बौना है ?
फिर स्वयं के प्रश्न का उत्तर
अपने प्रतिबिंब से पूछ लेती हूँ …
Added by Sushil Sarna on July 4, 2016 at 9:30pm — 8 Comments
सात जन्म दे जाए ...
मेघों का जल
कौन पी गया
कौन नीर बहाये
क्यूँ ऋतु बसंत में आखिर
पुष्प बगिया के मुरझाये
प्रेम भवन की नयन देहरी पर
क्यूँ अश्रु ठहर न पाए
विरह काल का निर्मम क्षण क्यूँ
धड़कन से बतियाये
वायु वेग से वातायन के
पट रह रह शोर मचाये
छलिया छवि उस बैरी की
घन के घूंघट से मुस्काये
वो छुअन एकान्त पलों की
देह भूल न पाये
तृषातुर अधरों से विरह की
तपिश सही न जाए
नयन घटों की व्याकुल तृप्ति
दूर खड़ी…
Added by Sushil Sarna on July 2, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
ज़िंदगी को छलने लगी .....
गज़ब हुआ
एक चराग़ सहर से
शब की चुगली कर बैठा
एक लिबास
अपने ग़म की
तारीकियों से दरयाफ़्त कर बैठा
कोई करीबियों से
फासलों की बात कर बैठा
मैंने तो
तमाम रातों के चांद
उस पर कुर्बान कर दिए थे
अपने ग़मग़ीन पैरहन पर
हंसी के पैबंद सिल दिए थे
अपनी आंखों के हमबिस्तर को
मैं चश्मे साहिल पे ढूंढती रहा
नसीमे सहर से
उसका पता पूछती रही
उम्मीदों की दहलीज़
नाउम्मीदी की…
Added by Sushil Sarna on June 30, 2016 at 8:35pm — 4 Comments
जीने का अंदाज़ .....
अचानक क्या हुआ
हम बेआवाज़ हो गए
हमारे ही लम्हे
हमसे नाराज़ हो गए
कुछ भी तो न था
हमारे दरमियाँ
फिर भी सीने में
हज़ारों राज़ हो गए
हसरतें
लबों की दहलीज़ पर
दम तोड़ती रही
गर्म सांसें
लावे की तरह
राहे उल्फ़त में
एक जुगनू सी उम्मीद लिए
दौड़ती रहीं
हम दोनों के बीच में
क्या है शेष
जो हमको बांधे है
क्यों हम दोनों की आंखें
सागर में नहाई हैं
देखो ! उन…
Added by Sushil Sarna on June 27, 2016 at 4:27pm — 6 Comments
पथरीली ज़मीन ....
जाने क्यूँ
आजकल आईना
ख़फ़ा ख़फ़ा रहता है
चुपके चुपके
अजनबी सूरत से
जाने क्या कहता है
अब ख़ुद से मुझे
इक दूरी नज़र आती है
दूर कोई परछाईं
अधूरी नज़र आती है
कभी ये नज़र का धोखा
नज़र आता है
कभी कोई जा जा के
लौट आता है
क्यों ये बेसब्री ओ बेकरारी है
किसके लिए आँखों ने
तारे गिन गिन रात गुज़ारी है
मैं अपने साथ
कहां कुछ लाया था
उसकी याद
उसी मोड़ पे छोड़ आया था
किसे देखता मुड़ के…
Added by Sushil Sarna on June 25, 2016 at 4:46pm — 10 Comments
हम के अस्तित्व से ....
बड़ा लम्बा सफर
तय करना पड़ता है
अंतस की व्यथा को
अधरों तक आने में
स्मृतिकोष के
पृष्ठों से किसी की
याद को मिटाने में
अनकहा
कुछ नहीं रहता
अवसाद के पलों में
अभिव्यक्ति
पलकों के पालने से
कपोलों पर
हौले हौले सरकती
किसी स्पर्श के इंतज़ार में
ठहर जाती है
शायद कोई
अपनत्व का परिधान ओढ़ कर
इक बूंद में समाये
विछोह के लावे को
अपनी उंगली के पोरों से उठा…
Added by Sushil Sarna on June 21, 2016 at 5:16pm — 4 Comments
पुरानी तस्वीर ...
ये तुंद हवायें
रहम न खाएंगी
खिड़की के पटों पर
अपना ज़ोर अजमाएंगी
किसी के रोके से भला
ये कहां रुक पाएंगी
अाजकल की हवा
बेरोकटोक चलती है
इनको क्या गरज
इनकी बेफिक्री
किसी के
पांव उखाड़ सकती है
किसी खिड़की के
सामने की दीवार पर
सांस लेती नींव की
पुरानी तस्वीर
गिरा सकती है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 20, 2016 at 9:52pm — 10 Comments
चेहरा ...
एक चेहरा एक पल में
लाखों चेहरे जी रहा
कौन जाने कौन सा चेहरा
हंस के आंसू पी रहा
एक चेहरा लगता अपना
एक क्यों बेगाना लगे
कौन दिल की बात कहता
कौन होठों को सी रहा
कत्ल होता रोज इक चेहरा
रोज इक जन्म हो रहा
एक जागे किसी की खातिर
आगोश में इक सो रहा
एक चेहरा ख्वाब बन के
ख़्वाबों में बस जाता है
एक चेहरा अक्स बन के
नींदें किसी की पी रहा
एक चेहरा अपनी दुनिया
चेहरों में बसाता है
एक चेहरा दुनिया…
Added by Sushil Sarna on June 16, 2016 at 2:59pm — 6 Comments
मायाजाल ...
ये मकड़ी भी
कितनी पागल है
बार बार गिरती है
मगर जाल बुनना
बंद नहीं करती
बहुत सुकून मिलता है उसे
अपने ही जाल के मोह में
स्वयं को उलझाए रखने में
वो स्वयं को
वासनाओं के जाल में
लिप्त रखना चाहती है
शायद वो जानती है
जिस दिन भी वो
अपना कर्म छोड़ देगी
वो अपनी पहचान खो देगी
पाकीज़गी उसे मोक्ष तक ले जाएगी
लेकिन इस तरह का मोक्ष
कभी उसकी पसंद नहीं होता
उसे तो अपनी वही दुनियां पसंद है…
Added by Sushil Sarna on June 13, 2016 at 3:35pm — 12 Comments
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