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सतविन्द्र कुमार राणा's Blog – November 2018 Archive (5)

परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है-गजल

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न जाने क्या हुई हमसे ख़ता है

हमारा यार जो हमसे खफ़ा है।

यूँ ही बदनाम हाकिम को हैं करते

यहाँ प्यादा भी जब जालिम बड़ा है।

जरा सींचो भरोसा तुम जड़ों में

शज़र रिश्तों का इन पर ही खड़ा है।

उसी ने छू लिया है आसमाँ को

परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है।

नहीं हमदर्द होता आदमी जो

सहारा गलतियों में दे रहा है।

अमा की रात में महताब आया

तुम आये तो हमे ऐसा लगा है।

मौलिक…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2018 at 6:30pm — 10 Comments

सुना ठीक है सिरफिरा आदमी हूँ- ग़ज़ल

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सुना ठीक है सिरफिरा आदमी हूँ

उसूलों का पाला हुआ आदमी हूँ।

हमेशा ही जिसने सही बेवफ़ाई

जमाने में वो बावफ़ा आदमी हूँ।

कि मौजें मुझे दूर खुद से करेंगी

अभी मैं भँवर में फँसा आदमी हूँ।

डिगायेगी कैसे मुझे कोई आफ़त

मैं चट्टान जैसा खड़ा आदमी हूँ।

रहा साथ जिसके जरूरत में अक्सर

कहा है उसी ने बुरा आदमी…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 26, 2018 at 10:00am — 9 Comments

चन्द मुक्तक

कुछ मुक्तक

1.

आग सीने में मगर आँखों में पानी चाहिए

साथ गुस्से के मुहब्बत की रवानी चाहिए

हाथ सेवा भी करें और' उठ चलें ये वक्त पर

ज़ुल्मतों से जा भिड़े ऐसी जवानी चाहिए।

2.

शेर की औक़ात गीदड़ की कहानी देख लो

नब्ज में जमता नहीं किसका है पानी देख लो

दुम दबाना सीखता जो क्या करेगा वो भला

हौसले का नाम ही होता जवानी देख लो।

3.

समंदर भी गमों के पी जो जाएँ

बहुत ही ख़ास हैं जिनकी अदाएँ

कहाँ हैं मौन ये खामोशियाँ भी

ज़रा तू देख तो…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 12, 2018 at 11:00pm — 6 Comments

किसी के इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक(गजल)

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रहेगी इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक

हमारा टूटना कब तक और' उनकी दिल्लगी कब तक।

सिमटकर इक परिंदा जान अपनी दे ही बैठा है

शिकारी! तू पकड़ इस पे रखेगा यूँ कसी कब तक।

यहाँ लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की

चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक। 

अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका

ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।

बड़ा तूफ़ान आयेगा लगा…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 11, 2018 at 10:30pm — 7 Comments

हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें(ग़ज़ल)

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हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें

इसी तकरार से अक्सर निकलतीं  प्यार की बातें।

नज़र मंजिल पे रक्खो तुम बढ़ाओ फिर कदम आगे

नहीं अच्छी लगा करतीं हमेेशा हार की बातें।

अँधेरे में चरागों-सा उजाला इनसे मिल जाता

गुनी जाएं तज्रिबे  के  सही गर सार की बातें।

अलग हैं रास्ते चाहे है मंजिल एक पर सबकी

जो ढूंढें खोट औरों में करे वो रार की…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 5, 2018 at 8:30pm — 17 Comments

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