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बिना बात की बात बनाते,
लोग यहाँ दिख जाते हैं
जैसे उल्लू सीधा होता,
वैसे ही बिक जाते हैं।

धर्म नहीं जानें क्या होता,
क्या जानें परिभाषा को
रिश्तों को अब मान नहीं है,
स्थान नहीं कुछ आशा को।
दशरथ घर से बाहर हैं अब,
पूत वहाँ का राजा है,
देकर वचन भूल जाना बस,
यही समय से साधा है
सरयू को अपमानित करते,
गंगा दूषित होती है
देख नज़ारा प्रतिदिन का यह,
भारत भू अब रोती है।
राम नहीं है घट में लेकिन,
झंडों पर टिक जाते हैं।
बिना बात की बात बनाते,
लोग यहाँ दिख जाते हैं।

गुह-सा मित्र नहीं है कोई,
जो कुछ साथ निभाता हो
काँटें राहों के आगे बढ़,
खुद ही दूर हटाता हो
पथ में जो भी नदी मिले वह,
उसको पार कराता हो
संकट आए अगर मित्र पर,
उससे खुद टकराता हो।
सत्ता की अब भूख बड़ी है,
उसको भी भरमाया है।
आज मित्रता के ऊपर भी,
धूर्त समझ का साया है।

विष की खेती करने वाले,
धरती को उकसाते हैं।
बिना बात की बात बनाते,
लोग यहाँ दिख जाते हैं।

लछमन की पूजा तो होती,
देता नहीं दिखाई है।
अवसर भरत नहीं गंवाता,
ऐसी समझ बनाई है।
कंक्रीट का बना है जंगल,
ऋषि का ज्ञान अधूरा है,
गिद्ध जटायु बना बैठा है,
रक्षा कवच न पूरा है।
हनुमत को क्या याद दिला दे,
जाम्वत खुद अनजाना है।
नल औ नील बिना सागर पर,
सेतु बांधना ठाना है।

अंगद तो हैं लेकिन उनके,
पैर नहीं टिक पाते हैं।
बिना बात की बात बनाते
लोग यहाँ दिख जाते हैं।

हाल हुआ जो अब धरती का,
मानवता पर भारी है।
लील रही है नित लोगों को,
ऐसी यह बीमारी है,
मर्यादा को भूले हैं सब,
उसकी हुई ठिठोली है,
अनुशासन जनता में गुम है,
शासन देता गोली है
मंदिर से हर मन में तुमको,
राम पुनः आना होगा,
जनता से राजा तक सबको,
कर्तव्य समझाना होगा।

बनते हैं कुछ भक्त तुम्हारे,
कुछ तुमसे कतराते हैं।
बिना बात की बात बनाते
लोग यहाँ दिख जाते हैं।
जैसे उल्लू सीधा होता,
वैसे ही बिक जाते हैं।

मौलिक अप्रकाशित
'

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 18, 2021 at 7:46pm

आदरणीय धामी जी सादर नमन सह आभारं

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 27, 2021 at 9:32am

आ. भाई सतविन्द्र जी, सादर अभिवादन। अच्छी समसामयिक रचना हुई है । हार्दिक बधाई।

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