धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज
चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज
मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल
नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय का नाद
अधरों पर अंकित हुआ, अधरों का अनुनाद
तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 17, 2014 at 9:45pm — 26 Comments
मैंने हिटलर को नहीं देखा
तुम्हें देखा है
तुम भी विस्तारवादी हो
अपनी सत्ता बचाए रखना चाहते हो
किसी भी कीमत पर
तुम बहुत अच्छे आदमी हो
नहीं, शायद थे
यह ‘है’ और ‘थे’ बहुत कष्ट देता है मुझे
अक्सर समझ नहीं पाता
कब ‘है’, ‘थे’ में बदल दिया जाना चाहिए
तुम अच्छे से कब कमतर हो गए
पता नहीं चला
एक दिन सुबह
पेड़ से आम टूटकर नीचे गिरे थे
तुम्हें अच्छा नहीं लगा
पतझड़ में…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 6, 2014 at 1:30pm — 46 Comments
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