आज
बहुत दिनों बाद आया गांव
अपना गांव
जहां हुआ करते थे
महुआ, कटहल, आम
एक बाग भी।
खेलते थे गुल्ली डंडा
कभी कभी क्रिकेट भी।
अब वहां बाग नहीं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 6, 2013 at 10:32pm — 40 Comments
आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।
2122, 2122, 2122, 212
चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही
याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही
सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 2, 2013 at 7:30pm — 54 Comments
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