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Mohammed Arif's Blog – April 2017 Archive (3)

ग़ज़ल: उसको ये समझाना है

(बह्र--22/22/22/2)
उसको ये समझाना है ,
इक दिन सबको जाना है ।

.
हँस के रोकर कैसे भी ,
जीवन क़र्ज़ चुकाना है ।

.

देखो, भटका फिरता वो ,
वापस घर तो आना है ।

.

अच्छी सच्ची राहें हैं
सबको ये बतलाना है ।

.

उसके संगी-साथी को ,
मिलकर हाथ बढ़ाना है ।

.

आशा की किरणों वाला ,
फिर से दीप जलाना है ।

.
मौलिक एवं आप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on April 30, 2017 at 4:00pm — 13 Comments

मेरे भीतर की कविता

मेरे भीतर की कविता

अक्सर छटपटाती है

शब्दों के अंकुर

भावों की विनीत ज़मीन पर

अंकुरित होना चाहते हैं

ना जाने क्यों वे

अर्थ नहीं उपजा पाते हैं

मेरे भीतर की कविता फिर भी

जाकर संवाद करती है

सड़क किनारे बैठे

उस मोची पर जो

फटे जूते सी रहा है

बंगले की उस मेम साहिबा पर

जो अपना बचा फास्ट फुड

डस्टबिन में फेंककर

ज़ोर से गेट बंद करके

अंदर चली जाती है

लेकिन

अनुभूतियाँ ज़ोर मारती है

पछाड़े खाकर गिर जाती है

हृदय…

Continue

Added by Mohammed Arif on April 17, 2017 at 5:30pm — 12 Comments

ग्रीष्म के हाइकु

1. झुलसी काया
आतंकी-सा सूरज
बेचैन सब ।
2.सूनी सड़कें
पसरा है सन्नाटा
जारी खर्राटे ।
3.डाल से टूटे
बरगद के पत्ते
सुनाए राग ।
4. सूखने लगे
पोखर औ तालाब
छोटी रात ।
5.नन्ही चीड़िया
करके जलपान
फुर्र हो जाए ।
6.चैत्र महीना
रात-दिन तपाए
किधर जाएँ ।
7.लू के थपेड़े
साँय-साँय सन्नाटा
सुस्ती में तन ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on April 2, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

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