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Mohammed Arif's Blog – February 2017 Archive (3)

ग़ज़ल बह्र 22/22/22/2 अब नारों से डरते हम

अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।


ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।


ये जीना कैसा जीना,

ग़र्बत में ही मरते हम।


सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।


याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 10:30am — 2 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

उसने मुझको देखा है,
शायद कुछ तो सोचा है।
मंज़र कुछ ऐसा है जो,
उसकी आँखों देखा है।
मुश्क़िल राहों पे अब वो,
धीरे-धीरे चलता है।
कहता है वो सच को सच
सबको कड़वा लगता है।
उस पे शक़ करना कैसा,
वह तो जाँचा परखा है।
सुख-दुख के मौसम को, वह
ख़ामोशी से सहता है।
बारिश हो जाने से अब,
मौसम बदला-बदला है।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

हाइकू (आरिफ मोहम्मद)

1.

सौंधी महक
मिट्टी पड़ी गिरवी
विदेशी चाल ।

2.

बाज़ार भाव
रोज़ की घट-बढ़
है सोची चाल ।
3.

होली दस्तक
अब रंगों में हिंसा
फैला तनाव ।

4.

नंगा बदन
फैशन का कमाल
धन की लूट ।

5.

कहाँ को जाएँ
लूटी हुई है शांति
दिशा बेहाल ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 3, 2017 at 8:30am — 10 Comments

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