किरणें चित्र उकेरें अँगना, है प्रीत तेरी हमें बांधन निकली
धरती का मैं लहंगा सिला लूँ, हरियाली की पहनूं चोली
अम्बर की बन जाए ओढ़नी, देखूं फिर नववर्ष रंगोली
तारों की मैं माला गूंथुं, चाँद बने बिंदिया की रोली
बने चांदनी मेरी मेहँदी, सज जाए मेरी भी हथेली
नेह झड़ी की आस लगाए, सुलगी जाए मरी दूब हठीली
सूरज को मैं बांधू राखी, फिर घोलूं किरणों की शोखी
बन जाए मेरा भाई सूरज, सज जाए मेरी भी डोली.....
केसर रंग में मांग सजाऊं, देख घटा की अलक…
ContinueAdded by sunita dohare on January 26, 2015 at 2:30pm — 14 Comments
हां मैं एक पुरुष हूँ और अगर मैं एक पुरुष हूँ !
तो मुझे बनना भी चाहिए उस पुरुष की तरह
जो बेरोजगारी की भेंट चढ़कर, अपने फर्ज़ निभाता रहे,
सुबह से शाम तक रोजी रोटी की जुगाड़ में
जैसे हो कोई जादूगर, जिसके हांथों में हो गरीबी का हुनर
टूटी चप्पलें और घिसते पेंट की मोहरी से, झलके उसकी गरीबी
और ये नाक वाले नेता, छीन सके हम गरीबों के मुंह का निवाला
और कह सकें “तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हे नौकरी दूंगा”
जैसे हम गरीब हों बिना पेट के पुतले, पेट हो जैसे मेरा एक…
Added by sunita dohare on January 1, 2015 at 1:00am — 9 Comments
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