तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
एक कृषक कल तक थे लेकिन अब शहरी मजदूर बने।
सृजक जगत के कहलाते थे, वो कैसे मजबूर बने?
वे बतलाते जीवन गाथा, पीड़ा से घिर जाता हूँ।
कितने दुख संत्रास सहे हैं, ये लिख दूँ, फिर आता हूँ।
कर्तव्यों के नव बंधन को तोड़ तुम्हारे पास प्रिये,
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
कौन दिशा में कितने पग अब कैसे-कैसे है चलना?
अर्थजगत के नए मंच पर, कैसे या कितना…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2017 at 2:00pm — 23 Comments
गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments
उफ़! करो कोई न हलचल,
शांत सोया है यहाँ जल ।
नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।
लुप्त सी है चेतना, दोनों दृगों पर है पलस्तर।
वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?
क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।
कौन, क्या, कैसे करे? जब,
हो स्वयं निरुपाय-कौशल।
पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।
विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।
सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2017 at 3:00pm — 27 Comments
भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।
सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।
व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।
भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।
सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?
मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।
प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।
शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।
भेदभाव का तम चीरे जो, दीप जलाओ अंतस में…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2017 at 10:30pm — 25 Comments
पिया खड़े है सामने,
घूंघट के पट खोल।
चुप रहने से हो सका, आखिर किसका लाभ,
आज समय की मांग है, नैनो में रक्ताभ।
आधी ताकत लोक की,
अपनी पीड़ा बोल।
पौरुषता का वो करें, अहम् हजारों बार,
लेकिन तेरे बिन सखी, बिलकुल है लाचार।
वो आयेंगे लौटकर,
सारी धरती गोल।
जननी से बढ़कर भला, ताकत किसके पास,
आज संजोना है तुम्हें, बस अपना विश्वास।
हिम्मत से मिटना सहज,
जीवन का ये झोल।
अपने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 10:00am — 31 Comments
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