सु्धीजनो !
दिनांक 21 मई 2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 61 की समस्त प्रविष्टियाँ
संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा और कुण्डलिया छन्द.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
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१. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
दोहा छंद
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पंच तत्व से तन बना, जल उसमें से एक।
दूषित जल या जल बिना, मरते जीव अनेक॥ ................ (संशोधित)
पहुँचा बालक गांव से, दोपहरी का ताप।
तड़प गया पानी बिना, नल भी करे विलाप॥
खाक शहर की छानता, प्यासा औ’ बदहाल।
निकल रही नल से हवा, सूख गये सब ताल॥
भूख प्यास औ’ धूप से, निकल न जाये जान।
होंठों पर भगवान हैं, आँखों में शमशान॥
बिन पानी क्या जिन्दगी, जनता करे पुकार।
पाँच बरस की नींद में, सोई है सरकार॥
भोजन पानी घर नहीं, उस पर जंगल राज।
जो चरित्र से भेड़िये, उनके सिर पर ताज॥
तरण ताल में तैरकर, अफसर नेता मस्त।
साकी बाला साथ में, प्यासी जनता त्रस्त॥
दारू है पर जल नहीं, ना भोजन न मकान।
पदक प्रदूषण में मिला, भारत देश महान॥
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२. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
गीत "प्यास"
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गला चला है सूख अब,भड़क रही है प्यास
एक बूँद से भी बढ़े,जीवन की फिर आस
पकड़े है नल एक को,कोई बूँद मिल जाय
गर्मी के इस दौर में,थोड़ी प्यास बुझाय
थोड़ी प्यास बुझाय,जान फिर बच ही जाती
एक बूँद भी आज,देख कीमत बतलाती
हैं सब चारों ओर,कमी में जल की अकड़े
पाने जीवन धार,खड़े हैं बर्तन पकड़े।
बूँद-बूँद जल की बचे,आए एक उजास।।
होकर प्यासा ज्ञान का,फिर चल उसकी ओर
गुणीजनों के ओज से,पा ले कोई कोर
पा ले कोई कोर,जरा सा ज्ञानी बन ले
कुछ कर ले तू कर्म,ज्ञान का कुछ तो धन ले
मिटा नहीं तू मान,जान भी अपनी खोकर
मन में धर ले ज्ञान,उसी का प्यासा होकर।
ऐसा करने से बनें,हर जीवन ही ख़ास।।
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३. आदरणीया कान्ता रॉय जी
दोहे छन्द
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मृगतृष्णा जीवन तृषा,जीवन है एक आस
जब तक तन में प्राण है,कैसे जाए प्यास
पानी तन की चाहना,पानी जीवन चाह
पानी से ही जीव है,सांस -सांस की राह
सूखी धरती राम की,सूखा हरि का गाँव
पानी कैसे छल रही,चिता बनी है छाँव
गली- गली में लग गयी,हैंडपम्प तस्वीर
बाहर कब तस्वीर से,आयेगी तकदीर
बिसलेरी पानी पियो,परियोजन सरकार
आटा गीला करन को,टैंकर की दरकार
ढूंढत खोजत आज चहुं,बूंद-बूंद को नीर
देखो कैसे दींन का,घटता जाय शरीर
इस छोरे के हाल पर,किसका गया ध्यान
भवसागर में बाप- माँ,रक्षा करें भगवान
जीव-जीव में प्रभु बसे,मानव का है धर्म
छोरे को दो आसरा,कर लो कुछ सत्कर्म
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४. सौरभ पाण्डेय
कुण्डलिया छन्द
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सोख रहा हो जब गला, तन प्यासा, मन आह
दोनों सूरत चाहिए, उत्कट अतुलित चाह
उत्कट अतुलित चाह, बूँद में जीवन-धारा
सूखा बम्मा देख, चढ़ा करता है पारा
हे शासन के मुग्ध, तनिक भावों से बरसो
हम ठहरे मज़दूर, कहो मत ’जाओ-तरसो’
हम आवारा-बेहया, कहता जगत कुरूप
इधर हमारा भाग्य भी, मई-जून की धूप
मई-जून की धूप, प्यास को कण्ठ बिठाये
चिलचिल करती खूब, चाँदनी जैसी भाये
झेल रहे हम प्यास, मगर क्या कोई चारा ?
मन-मौजी मनसोख, तभी तो ’हम आवारा’
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५. आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी
दोहा-छंद :
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दाना-पानी के लिए, मेहनत करे ख़ूब।
सबसे नाते खो दिये, ख़ुदा भर मेहबूब।।
मेहनती यूँ धूप में, प्यासा है बेहाल।
अनाथ का कब कौन है, पूछ सके जो हाल।।
भूखे तन नल पर गया, पीने को दो बूँद।
पानी पापी पी गये, अपनी आँखें मूंद।।
नल पर हक़ तेरा गया, रो कर करे बयान।
टपका कर दो बूंद ये, नल ही देता ज्ञान।।
नीर पीर है तीर सी, ले जाये कब प्राण।
वन, जल रक्षा ही करे, जन-जन का कल्याण।।
[दूसरी प्रस्तुति]
कुण्डलिया-छंद :
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घूमी टोंटी ही नहीं, कोशिश थी बेकार।
जंग मिली बूँदें गिरीं, नल पर जो दे मार।।
नल पर जो दे मार, तभी मुट्ठी जल जाती।
बालक की हो हार, प्यास उसको तड़पाती।।
फोटो ले ले यार, दृश्य अद्भुत मासूमी।
प्यासा यह बेजार, नहीं टोंटी ये घूमी।।
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६. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
दोहा गीत
भरने भूखे पेट को ,आया नल के पास
वो भी है रूठा हुआ ,किस दर जाए प्यास
बाग़ कहीं तर हो रहे ,कहीं नहाती कार
और कहीं पानी बिना ,साँसें जाती हार
अच्छे दिन सबके लिए ,बात लगे परिहास
आती जल की आपदा ,ऐसे ही हर साल
फिर भी क्यों जगते नहीं ,भारी बड़ा सवाल
दोषारोपण छोड़कर ,हो सच का आभास
कुदरत ने दिल खोलकर ,दिया हमें जल कोष
दोहन बिन सोचे किया ,दें किसको अब दोष
सूखी धरती की जुडी ,बस बादल से आस
कुंडलियाँ छंद
यारा नल मुहँ खोल दे ,प्राण रहे हैं सूख
पानी की दो घूँट पी ,सह लेता हूँ भूख
सह लेता हूँ भूख ,सभी घट घर के रीते
रोटी नहीं नसीब ,तुझी पर हम हैं जीते
सूखा हो या बाढ़ ,सभी को मैं क्यों प्यारा
कब तक झेलूँ मार ,बता दे तू ही यारा
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७. आदरणीय टीआर सुकुल जी
दोहा छंद
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अब तक जल देता रहा, अब है क्यों वह मौन।
धार टूट क्यों गई है, बतलाये यह कौन ।। 1 ।।
प्यास बहुत ही तेज है , ऊपर से यह धूप।
नल जल देता है नहीं, नहीं यहाॅं है कूप ।। 2 ।।
तड़प युवक की देखकर, नल रोया वहु बार।
बूंद आँसु की गिरी जब, आस हुई तैयार ।।3 ।।
परखत परखत युवक के , नैन हुए आधीर।
आस निरास उदास फिर, ढूड़न लागे नीर ।।4 ।।
व्यर्थ व्यथित इस दशा से, किसका है यह दोष।
करनी का फल भुगत अब, क्यों दिखलाये रोष ।।5 ।।
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८. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(१) दोहा छन्द
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झूठ समझना मत इसे -सच्चा है यह बोल ।
बेजा नहीं बहाइये - पानी है अनमोल ।
सूख गये हैं सब कुएँ -बारिश की है आस ।
कौन बुझाये अब ख़ुदा -हम लोगों की प्यास ।
बड़े काम की बात है -सुनो लगा कर ध्यान ।
जीवन जल को जान तू -जल को जीवन मान ।
ख़ुश्क हुऐ सारे कुएँ - सूख गए तालाब ।
कैसे आए टैंक से - अपने नल में आब ।
प्यास बुझाए किस तरह - जल टोंटी से दूर ।
बैठा है मुंह खोल के - बेचारा मज़दूर ।
नदी ,कुएं सूखे पड़े - नल भी हैं बेकार ।
जल की खातिर है मचा - जग में हाहाकार । ............... (संशोधित)
चौपाए हों या ज़मीं - या परिन्द ,इंसान ।
पानी इनकी ज़िंदगी - जल है इनकी जान ।
टूट गया पाइप कहीं - कहता है अख़बार ।
पानी आएगा नहीं - अब दो दिन तक यार ।
द्वितीय प्रस्तुति
कुण्डलियाँ छन्द
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पानी सबकी ज़िंदगी -- समझो इसका मोल
हर कोई संसार में -- यही रहा है बोल
यही रहा है बोल - हमें है इसे बचाना
बेशक है अनमोल - न बेजा इसे बहाना
कहे यही तस्दीक़ - बनेगी दुनिया फ़ानी
नहीं रहा जिस रोज़ - ज़मीं के अन्दर पानी ।
प्यासा बैठा है मगर - टोंटी पर है हाथ
प्यासे से अब प्यास का - कैसे होगा साथ
कैसे होगा साथ - नहीं है नल में पानी
देख सामने देख - बहुत बेदर्द कहानी
कहे यही तस्दीक़ - दिलाए कौन दिलासा
अपने मुंह को खोल - देख बैठा है प्यासा ।
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९. आदरणीय गोपल नारायन श्रीवास्तव जी
दोहा
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बड़ी भयावह ग्रीष्म है, सूखे के आसार
एक बूँद पानी नहीं जग में हाहाकार
सूखे पोखर ताल सब नहीं नीर है लब्ध
छाती धरती की फटी सारा जग स्तब्ध
बढ़ा प्रदूषण नीर का पंक हुआ बेचैन (संशॊधित)
संकट में अब प्राण है रंच नहीं है चैन
सभ्य नगर की आपदा है सर्वथा दुरंत (संशॊधित)
नल में जल के साथ ही मल आता है हंत
अब ऐसा ढब हो गया खींच रहे नल सांस
एक बूँद लटकी हुयी पडी नाक में फांस
प्राण लिए है कंठ में ऐसी उत्कट प्यास
चातक जैसी टेक है एक बूँद की आस
हमने अरि सा है किया संसृति से व्यवहार
पलटवार उसने किया तृषावंत संसार
मरना तो है एक दिन पर हो सहja प्रयाण
भगवन आकुल प्यास से तजे न कोई प्राण
कुण्डलिया
धरती पर सूखा पड़ा जल का घटा घनत्व
जल जीवन है इसलिए इसका बड़ा महत्व
इसका बड़ा महत्व बचाओ मिलकर पानी
करो सर्वथा बंद प्रकृति से अब मनमानी
सजती अपने आप सृष्टि स्वयमेव संवरती
जब होता अतिचार दरक उठती है धरती
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१०. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी
कुण्डलिया छंद
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रूखा है आनन मगर, नैन रहे हैं बोल |
सचमुच इस संसार में, पानी है अनमोल ||
पानी है अनमोल, इसे मत व्यर्थ गँवाना,
कहता बालक एक, मित्र मत इसे भुलाना,
रहे अगर हम मौन, पडेगा हरदम सूखा,
जीवन होगा ख़त्म, और जग सारा रूखा ||
छोटा है बालक यहाँ, किन्तु बड़ी है प्यास |
सरकारी नल से उसे, सदा रही है आस ||
सदा रही है आस, मिलेगा हरदम पानी,
टपके टप-टप बूँद, नहीं इसमें हैरानी,
होवे जो नल बंद, भाग्य तब होगा खोटा,
मुँह ऊँचा कर मित्र, सोचता बालक छोटा ||
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११. आदरणीय समर कबीर साहब
दोहे
===
जल बिन सब लाचार हैं,पशु हो या नर-नार
मेरी सारी बात का,बस इतना है सार
वोट हमारे ले चुके,क्या अब इनको काम
रोटी पानी के लिये मचे भले कुहराम
कब तक झेलेंगे बता, सूखे की ये मार
पाप हमारे भूल जा,कर दे तू उपकार
सब के मन में रोष है,हर सू हाहा कार
कोई करता देखिये,पानी का व्यापार
नलकों में पानी नहीं,सूख गये सब ताल
किसको फ़ुर्सत है "समर",देखे अपना हाल
देखो मारे प्यास के,निकल रही है जान
नल में पानी ढूँढता, बालक है नादान
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१२. आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय जी
कुण्डलियाँ छंद
बूँदें गिनती की यहाँ ,टेर रहा मुहँ खोल
वादे थे गिनती परे ,चित्र खोलता पोल
चित्र खोलता पोल ,अश्रु भी सूखे इसके
करते थे बडबोल ,कहाँ वो नेता खिसके
घर में जल भरपूर ,तभी हैं आँखे मूँदें
तब समझेंगे मोल ,मिलें जो गिन गिन बूँदें
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१३. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी
दोहे
===
जल जीवन का सार है, जल बिन जग बेकार ।
जगे कंठ में प्यास जब, समझे है नर नार ।।
बूंद बूंद के मूल्य को, चुका सका है कौन ।
दर दर भटके आदमी, कलकल बैठी मौन ।।
धरा तप्त अभिसप्त है, बंद पड़ी जल धार ।
जल जीवन का सार है, जल बिन जग बेकार ।
कुआँ बावली दर्ज है, खोल देख इतिहास ।
ताल तलैया है जहां, मैल करे उपहास ।।
भू-तल के जल स्रोत सब, लगे आज बीमार ।
जल जीवन का सार है, जल बिन जग बेकार ।
नीर निकासी तुम किये, छेद छेद भू-गर्भ ।
रिक्त हुये भू-गर्भ अब, कहाँ करोगे दर्भ ।।
घड़ा भरे बिन चाहते, नित्य नित्य जल धार ।
जल जीवन का सार है, जल बिन जग बेकार ।
बचा रखें जल स्रोत को, भू-तल पर जल रोक ।
पानी बहे न व्यर्थ में, तभी मिटे यह शोक ।।
बूंद बूंद जब जल बचे, सुखी रहे संसार ।
जल जीवन का सार है, जल बिन जग बेकार ।
द्वितीय प्रस्तुति
कुण्डलिया छन्द
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बालक बैठा है थका, नल की टोटी खोल ।
प्यास बुझाते सोचता, जल का क्या है मोल ।
जल का क्या है मोल, जगत यह समझ न पाये ।
नीर मिले बेमोल, व्यर्थ में लोग बहाये ।।
प्यास जगे जब कंठ, मूल्य दे सके न मालक ।
नीर बहुत अनमोल, कहे खुद से वह बालक ।।
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१४. आदरणीय रवि शुक्ल जी
कुण्डलिया
=======
प्यासा बालक है बहुत, नल है बिन जल-धार।
मुश्किल कैसी आ गई, करो प्रभो! उपकार।
करो प्रभो! उपकार, कूप-सर सूख रहे हैं।
उस पर लू की मार, सभी जन जूझ रहे हैं।
कहते कवि रवि शुक्ल, धरा का तन-मन प्यासा।
करिये जल प्रभु! दान, न लौटे कोई प्यासा।
पानी का उपयोग हो, कभी न जावे व्यर्थ
जल बिन जीवन है नही, समझो इसका अर्थ
समझो इसका अर्थ बढ़े जीने की हिम्मत
मिले बूँद से बूँद बचा कर टालो किल्लत
हाल हुआ बेहाल, हाय दुख भरी कहानी।
सजल हुए हैं नैन, कभी नल में था पानी
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१४. आदरणीय सुधेन्दु ओझा जी
कुण्डलिया
======
प्यास बावरी कर रही, जी को यों हलकान।
निपट, झूरै नलहिं लिपट, जलहिं मनावे प्रान॥
जलहिं मनावे प्रान, कल नहीं आवै जी को।
कल-कल ध्वनि को जल, करै बे-कल सों हिय को॥
कह ओझा कविराय, हार मत, रखियो आस।
बेगहिं धाय,सुरराज, हरैंगे तोहरी प्यास॥
द्वितीय प्रस्तुति
कुण्डलिया
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रोज़ी-रोटी छांड़ि कै, दंड रहे सब पेल।
कैसे उनकी लेखनी, आज बने बेमेल॥
आज बने बे-मेल, मचै जो उनका हल्ला।
गावें उनके गीत, देस और गली मुहल्ला॥
कह ओझा कविराय, लिखो बस खोटी-खोटी।
नल-जल, लो समुझाय, नहीं बस रोज़ी-रोटी॥
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१५. आदरणीया वर्षा चौबे जी
दोहा
====
1 कितना कहा रहीम ने,बिन पानी सब सून |
फिर भी बचा नहीं लिया, अब तरसे दो जून||
2 कल -कल करता नल रूठा, सूखा गला अतराय|
पानी बूँदनहीं कहीं ,अब प्यास कहाँ बुझाय||
3 पानी -पानी जग करे,दीखे कहीं न नीर|
बस आँखन से बह रहा, बनके देखो पीर||
4 सूखे नदी तलाब सब,सूखी तल -तलैया|
बिन पानी बेहाल सब,करत हा हा दैया|
5 पानी संकट जान के,हो जाओ तैयार|
बूँद- बूँद पानी बचे,आओ करें विचार ||
द्वितीय प्रस्तुति
कुण्डलिया छन्द
पनघट सूना देख के ,राधा भईं उदास|
मोहन भी आए नहीं,कोई बुझी न प्यास||
कोई बुझी न प्यास,नैन मेरे अकुलाते|
आ जाओ घनश्याम,व्याकुल तुझे बुलाते||
कह 'वर्षा' बरसो तो, मिटे प्यास जन जनन की|
पूरी हो सब साध,मिलके तुमसे इ जी की||
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१६. आदरणीय रामबली गुप्ता जी
"कुण्डलिया छंद"
व्याकुल होकर प्यास से, जल की मन ले आस।
दौड़ा-दौड़ा आ गया, बालक नल के पास।।
बालक नल के पास, प्यास ना बुझने पाई।
नल सब सूखे आज, घोर विपदा है आई।।
जल बिन रहा न जाय, बताये किसको रोकर?
समझे जल का मोल, प्यास से व्याकुल होकर।।1।।
जल बिन मन व्याकुल हुआ, धरे नही अब धीर।
सूखे सर-नल-कूप सब, घटा नदी का नीर।।
घटा नदी का नीर, त्रस्त जन-जीवन सारा।
जल अमृत के तुल्य, बिना इसके नर हारा।।
जल-संरक्षण हेतु, यत्न निज कर लो निस दिन।
खूब लगाओ वृक्ष, रहोगे फिर ना जल बिन।।2।।
नल-नहरें सब शुष्क हैं, शुष्क ताल औ कूप।
प्यासे प्राणी त्रस्त हैं, औ तड़पाये धूप।।
औ तड़पाये धूप, आग-सी तपती धरती।
घन क्यों समझें पीर? आह क्यों जनता भरती?
बाग-विटप यदि लगें, जलद बरसायेंगे जल।
करो यत्न इस हेतु, कभी ना सूखेंगे नल ।।3।।
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१७. आदरणीय डॉ. पवन मिश्र जी
कुण्डलिया छन्द
===============
आया बालक भागता, लगी तपन की मार।
पहुँचा नल के पास जब, मिली नहीं जलधार।।
मिली नहीं जलधार, यत्न सारे कर डाले।
मिली उसे कुछ बूँद, कहाँ से प्यास बुझा ले .... .... संशोधित
सुनो पवन की बात, नीर बिन चले न काया।
सूखे जल के स्रोत, समय ये कैसा आया।।
तपती जाती ये धरा, बदल रहा भूगोल।
पानी की हर बूँद का, अब तुम समझो मोल।।
अब तुम समझो मोल, सूखती जाये नदिया।
बिन पानी सब क्लान्त, न पुष्पित कोई बगिया।।
कहे पवन ये बात, धरा जो रो रो कहती।
जल संरक्षण लक्ष्य, बचा लो धरती तपती।।
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१८. आदरणीय सुशील सरना जी
दोहा छन्द
===========
नीर हीन धरती हुई, सूख गए सब कूप
प्यासे को पानी नहीं, उसपर बरसे धूप !!१ !!
भानु ताप बरसा रहा , काला हुआ शरीर
लिए कंठ सूखा चला ,नल में मिला न नीर !!!२!
पानी पानी कर रहा, पानी को इंसान
बिन पानी अब देखिये, आफत में है जान !!३!!
जल की महिमा क्या कहें ,बूँद बूँद उल्लास
बूँद बूँद अनमोल है, बूँद बुझाए प्यास !!४ !!... ... .. . (संशोधित)
नदी ताल में जल नहीं, बुरा श्वेद से हाल
धरती प्यासी तप रही, तृषित कंठ बेहाल !!५!!
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१९. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
दोहा छंद
=======
धरती का यौवन कहे, सूरज है बदमाश
प्यासा बचपन देख के, रोया है आकाश
जल को दीपक मानिए, जिसकी बाती बूँद
अंधकार क्यों बेचता, मानव आँखें मूँद
ठहरा पानी देखकर, मत करना उपहास
नैनों में ठहरी रही, सागर जितनी प्यास
जीवन को सिखला दिया, तूने तो ऐ प्यास
तप्त धरा की गोद में, बूँद बनी विश्वास
वर्षा जल संचय नहीं, स्वार्थ सदा संतोष
कर्म मनुज का बावला, भूजल का क्या दोष?
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२०. आदरणीय पंकज कुमार मिश्र वात्स्यायन जी
दोहे
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नल सूना पानी बिना, व्याकुल इक इंसान।
कुछ बूँदें टपकें अगर, तो प्रसन्न हो प्रान।।
पानी की हर बूँद तो, होती अमिय समान।
जीवन की गतिशीलता, है पानी से जान।।
जल ही जीवन है सुनो, सभी लगाकर कान।
नदी पोखरे ताल का, रखना होगा ध्यान।।
वसुधा पर जो कुछ यहाँ, बिन पानी है धूल।
यदि जल नहीं बचा सके, होगी भारी भूल।।
जीवन का आधार जो, जीवद्रव्य कहलाय।
जल के बिना बने कहाँ, सच बतलाया जाय।।
माटी से जो भी खनिज,कोई पौधा पाय। ................... (संशोधित)
जल ही तो है माध्यम, पत्ती तक ले जाय।।
पोषण पाचन की क्रिया, और सभी की साँस।
सब पानी की देन है, पानी के सब दास।।
पंकज पानी के बिना, खिले कौन से ताल।
जल संचय विधियाँ बता,बदल कठिन यह हाल।।.......... (संशोधित)
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२१. आदरणीया वन्दना जी
दोहागीत
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आत्ममुग्ध मानव करे प्रकृति से परिहास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास
बूँद बूँद संघर्ष है हलक जड़ी है फाँस ... ..............(संशोधित)
मजबूरी मजदूर की कर्जदार है साँस
मंगल क्या एकादशी रोज रहे उपवास
प्याऊ लगवाना जहाँ इक पवित्र था काम
बोतल पानी की बिके आज वहाँ अविराम ............... (संशोधित)
जीवन मूल्य अमोल का नित देखें हम ह्रास
त्रस्त हो रहा प्यास से यह बच्चा बेहाल
गायब हैं इस दृश्य से उनका कौन हवाल
पंछी पौधे मूक पशु सब झेलें संत्रास
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२२. आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी
दोहा
====
बूंद बूंद अनमोल है, सबके जीवन बोल
जीवन देती हर बूंद,इसका बारिश मोल।१
बूंद बूंद को तरसे हम,नीर करो न बर्बाद
शपथ हमे है खानी, होगा जग आबाद। २
बूंद बूंद पानी नहीं, शोर मचाए जग मे
आज हमे नहना होगा,कलशभर पानी मे।३
बूंद बूंद मे गुंज रही,जलधारा की सांस
तडप तडप के मर जाएंगी,हरपल जीवन आंस।४
पुण्य वही धरा पर है,यह वेदो का ज्ञान
जहाँ रहा जल संरक्षित,जल बिन सब शमशान।५
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२३. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
दोहे
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तपन भरी इक जेठ में, भटका इत उत बाल।
दिखा न लेकिन एक भी, जीवित पोखर ताल।1।
हुई ताप से खूब जब, बेबस उसकी प्यास।
सूखे नल तक ले गई, एक बूँद की आस।2।
एक हाथ से नल पकड़, बैठा घुटने टेक।
प्यासे अधरों पर गिरी, लेकिन बूँद न एक।3।
लिए तड़प वह प्यास की, बेबस हुआ अधीर।
उभर गई मुख पर निचुड़, तनमन की हर पीर।4।
हलक सूखता जब गया, मन में उठा सवाल।
इतना बदतर क्यों हुआ, इस दुनियाँ का हाल।5।
तभी सोच के पट खुले, मन में आई बात।
हम सबने मिलकर किए, ये बदतर हालात।6।
ताल तलैया बावड़ी, क्या नदिया के तीर।
बदली नगरों ने बहुत, पनघट की तस्वीर।7।
घरघर नल पा गाँव में, लोग हुए मदमस्त।
देखभाल बिन हो गए, ताल-तलैया पस्त।8।
कटे पेड़ तो भमिजल, जा पँहुचा पाताल।
बारिश रूठी खूब तब, सूखा हर इक साल।9।
बिन पानी पड़ने लगी, संकट में पहचान।
जाने अब किस मोड़ पर, चेतेगा इंसान।10।
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२४. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
दोहा गीत
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बच्चे तक प्यारे मरे, नहीं नलों में नीर
कंठ सूखते जा रहे, तपता रहे शारीर |
सतत जहाँ नदिया बहे, फिर क्यों जनता त्रस्त
पानी तक भी बिक रहा, सौदागर सब मस्त |
नहीं रही संवेदना, कोस रहे तकदीर
पीने को पानी नहीं, तपता रहे शारीर |
पञ्च तत्व में है अधिक, जल का ही बाहुल्य
जल बिन फिर कैसे रहे, समझों इसका मूल्य |
भूखा जीवित रह सके, जी न सके बिन नीर
बरसे जब अंगार तो, तपता रहे शारीर |
भू जल भी कम हो रहा, शहर हुए आबाद
हरियाली गायब हुई, रहा न चारा खाद }
उष्म ताप से चुभ रहे, खुश्क कंठ में तीर
ज्वर से पीड़ित जीव का, तपता रहे शारीर |
जहरीला पानी हुआ, पक्षी तक बेचैन,
करे प्रदूषित आदमी, खोता सबकी चैन |
पनप रहे उद्योग सब, नदियों के ही तीर,
धूं धूं करके दिल जले, तपता रहे शारीर |
सृष्टि में ही आ रहा, उष्ण ताप का ज्वार
अगर न चेता आदमी, करे न ईश उपकार
जैसे झेलें आदमी, प्रिय वियोग की पीर,
सूखे रोग अकाल से, तपता रहे शारीर |
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२५. आदरणीय सचिन देव जी
दोहा-छंद
=======
जन-जीवन पर आ पड़ा, संकट ये गंभीर
सूखे सब साधन नहीं, पीने को भी नीर
गिरती बूँद निहारता, बिन पलकों को मूँद
बच जाये जीवन अगर, मिल जाये ये बूँद
व्यथा उजागर कर रहा, बालक ये मजबूर
सुख–सुविधायें छोडिये, पानी से भी दूर
आहत मन क्रंदन करे, आँख बहाती नीर
मेरे प्यारे देश की, ये कैसी तस्वीर
निर्धनता के घाव पर, सूखे की ये मार
कुदरत का भी देखिये, कैसा अत्याचार
सबके लिए विकास का, जो करते गुणगान
मजबूरों की प्यास का, कुछ कर लेते ध्यान
********************
जल की खातिर है मचा
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आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, आपके निवेदन के अनुसार संशोधन तो हो जायेगा. हो भी गया है. किन्तु एक प्रश्न है आपसे, जनाब.
त्वरित शब्द का अर्थ क्या होता है ? या संकलन पोस्ट होने पर पाठकों-सदस्यो द्वारा टिप्पणियों में इस शब्द का प्रयोग करना अपरिहार्य माना जाने लगा है ? ज्ञातव्य है, कि छन्दोत्सव के इस अंक का संकलन लगभग एक-डेढ़ हफ़्ते विलम्ब से आया है. .. :-))
कारण इसी पोस्ट की टिप्पणियों के माध्यम से बता दिया गया है.
सादर
मोहतरम जनाब सौरभ साहिब ,त्वरित शब्द जल्द बाज़ी का नतीजा है , जो इस्तेमाल नहीं होना चाहिए था -----हो गया ,
एक बार फिर कामयाब संचालन और संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, अच्छा है, आपने इस संदर्भ में मेरे कहे पर टिप्पणी की. हमने देखा है कि आप अक्सर टिप्पणियों के क्रम में कॉपी-पेस्ट की प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं. मंच के आयोजनों में भी हमने आपको एक ही वाक्य के सहारे पेस्ट करते हुए सभी सदस्यो-पाठकों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए देखा है. कई बार हमने आपको इस के लिए टिप्पणियों के माध्यम से ही कहा भी है, लेकिन संभवतः आपकी नज़र उन पर न पड़ी हो. आदरणीय, धन्यवाद ज्ञापन ही क्यों न हो, कॉपी-पेस्ट उचित प्रक्रिया नहीं है. यह कॉस्मेटिक या मशीनी लगता है. जबकि कोई भी टिप्पणी आत्मीय भावदशा के आदान-प्रदान का आईना हुआ करती है. होनी ही चाहिए.
सादर
आदरणीय सौरभ सर इस संकलन के लिए आपका हार्दिक आभार
" बोतल पानी की बिके आज वहां अविराम" में हरे रंग का कारण नहीं समझ पाई कृपया बताइयेगा ताकि संशोधन का प्रयास कर सकूँ और कृपया मार्गदर्शन कीजिये कि
बूँद बूँद को तरसती हलक जड़ी है फाँस के स्थान पर बूँद बूँद को जूझती हलक जड़ी है फाँस करना ठीक होगा वैसे जूझना का शाब्दिक अर्थ शारीरिक संघर्ष होता है पर यहाँ की स्थिति में तो मानसिक संघर्ष भी शामिल है | यह भी सोचा कि संघर्ष बूँद बूँद का हलक जड़ी है फाँस.... पर फिलहाल किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकी हूँ अभी और कोशिश करती हूँ |
सादर निवेदित
आपसे ही नहीं आदरणीया वन्दनाजी, मेरा प्रश्न प्रत्येक सदस्य से है. बशर्ते वे वाकई सुनते हैं. (ऐसा बहुत सोच-समझ कर कह रहा हूँ) - चन्द्रविन्दु और अनुस्वार में अंतर भी है ? यदि है तो वह क्या है ?
फिर हम हरी हुई कुछ पंक्तियों पर बात करेंगे.
आदरणीय सौरभ सर
मैं अपने कान पकड़ कर माफ़ी चाहती हूँ अपनी इस भारी भूल के लिए .. चन्द्रबिन्दु और अनुस्वार के अंतर का पता है इसलिए अपनी इस गलती पर टंकण त्रुटि कहकर पर्दा नहीं डाल सकती यह मुझे ध्यान रखना ही चाहिए कृपया जहां के स्थान पर जहाँ कर दीजिये और लाल पंक्ति बूँद बूँद को तरसती हलक जड़ी है फाँस के स्थान पर बूँद बूँद संघर्ष है हलक जड़ी है फाँस कर दीजिये
सादर निवेदित
आना तो आपका तनिक विलम्ब से हुआ आदरणीया वन्दना जी, किन्तु, जिस सहजता से आपने भूलको स्वीकार किया है वह स्वीकृति के अन्यतम उदाहरण की तरह है. यह सही है कि अब चन्द्रविन्दु को लेकर, कि, फ़ॉण्ट ही सहयोगी नहीं है, जैसी लापरवाही बरती जा रही है, वह हिन्दी भाषा के साहित्य स्वरूप पर एक और कुठाराघात की तरह है. कल बच्चे यदि ऊँट और ऊण्ट के बीच का भेद न कर पायें तो इसके लिए महान दोषी हमीं होंगे.
चलिए, आदरणीया, आपने मान लिया कि आपको इन दोनों के बीच का भेद मालूम था लेकिन ध्यान से उतर गया. लेकिन कई रचनाकारों को तो समझाने पर भी बात समझ में नहीं आती.
रचनाकारों के लिए छान्दसिक या गेय रचनाओं में मात्रा के अनुसार अनुस्वार द्विमात्रिक (गुरु) हुआ करता है, जबकि चन्द्रविन्दु एक मात्रिक (लघु). इसके बावज़ूद हमारे रचनाकार बन्धु इसके प्रति लापरवाही बरतते हैं यह समझ से परे है.
सादर
एक शिक्षिका होने के नाते मेरी इस तरह की भूल अक्षम्य है आदरणीय
देरी की वजह इन दिनों सरकार द्वारा बढ़ाया जा रहा कार्यभार है घर पर ऑफिस उठा कर लाना पड़ रहा है इसके लिए भी क्षमाप्रार्थी हूँ |
संशोधन हेतु सादर आभार
आदरणीया वन्दना जी, आपकी स्वीकृति के लिए सादर आभार.
आ० सौरभ जी , सचेत मांझी के रूप में मेरा निवेदन स्वीकार करें . संशोधन निम्न प्रकार ससम्मान प्रस्तावित है .
बढ़ा प्रदूषण नीर का पंक हुआ बेचैन
संकट में अब प्राण है रंच नहीं है चैन
सभ्य नगर की आपदा है सर्वथा दुरंत
नल में जल के साथ ही मल आता है हंत
यथा निवेदित तथा संशोधित ..
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