For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

एक कवि की दृष्टि से – अकुलाहटें मेरे मन की (महिमा श्री)

हाल ही में मैंने ‘बर्डमैन’ फ़िल्म देखी। इस फ़िल्म को इस बार चार विधाओं में आस्कर दिया गया है। इस फ़िल्म में एक संवाद था जिसे मैं भूल नहीं पाता। इस फ़िल्म का नायक एक फ़िल्म समीक्षक से कहता है कि “आपका क्या दाँव पर लगा है? मेरा तो सबकुछ दाँव पर लगा है। मेरी मेहनत, मेरी रोजी रोटी, मेरे सपने, मेरा भविष्य सबकुछ दाँव पर लगा है। आपका क्या दाँव पर लगा है?” इस फ़िल्म को देखने के बाद ख़ासकर किसी अभरते हुए कवि के पहले ही कविता संग्रह को समीक्षक की दृष्टि से देखने की मेरी हिम्मत नहीं होती। ऐसे किसी भी संग्रह को अब मैं सदा एक कवि की दृष्टि से ही देख सकूँगा।
‘अकुलाहटें मेरे मन की’ ‘महिमा श्री’ जी का पहला एकल कविता संग्रह है। सबसे पहले तो मैं उन्हें इस कविता संग्रह के प्रकाशन पर बधाई देता हूँ। इस संग्रह की जो रचनाएँ सबसे पहले ध्यान खींचती हैं वो हैं स्त्रियों पर लिखी इनकी कविताएँ।
‘तुम स्त्री हो’ शीर्षक कविता स्त्री के प्रति पुरुष के दॄष्टिकोण पर करारा व्यंग्य करती है। “आदम की भूख / उम्र नहीं देखती / ना ही देखती है / देश, धर्म और जात / बस सूँघती है / मादा गंध” या “सावधान रहो / सतर्क रहो / हमेशा रहो / जागते हुए भी / सोते हुए भी” जैसी पंक्तियाँ पुरुषों के दॄष्टिकोण पर करारा व्यंग्य हैं।
‘तुम्हारा मौन’ इस युग की मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करता है। पुरुष आगे निकलने की होड़ में इस कदर व्यस्त है कि उसे अपनी जीवनसंगिनी से प्रेम का इज़हार करने का मौका भी नहीं मिलता। ऐसे में स्त्री के मन में जो बेचैनी उभरती है उसको शब्द देती है ये कविता। “सुनना चाहती हूँ तुम्हें / और मुखर हो जाती हैं / दीवारें, कुर्सियाँ / टेबल, चम्मचे / दरवाजे / सभी तो कहने लगते हैं / सिवाय तुम्हारे..”।
‘मायाजाल’ शीर्षक कविता रुढ़ियों के पिंजरे में बंद उस मैना के दिल की बात करती है जो आकाश में उड़ने को छटपटा रही है। जो तरह तरह के तर्कों से अपने आप को समझाना चाहती है कि पंखों का काम सिर्फ़ पिंजरे की सफाई करना है। क्योंकि यदि उसको ये विश्वास हो गया कि उसके पंख उड़ने के लिए हैं तो उसका जीना और मुश्किल हो जाएगा।
‘नदी सी मैं’ शीर्षक कविता में नदी की तरह बहने की, सबको अपनाने की चाहत को महिमा जी ने शब्द दिये हैं। स्त्री के सबसे ज़्यादा समीप मुझे कुछ लगता है तो वह नदी ही है। नदी में जो सबको अपनाने और उसके बावजूद स्वयं को साफ रखने की अद्भुत क्षमता है वही क्षमता स्त्री में भी है। “नदी सी मैं / बहती रही / कभी मचलती रही / कभी उफनती रही / जो भी मिला / अपना बना डाला”।
‘इस बार नहीं’ कविता के माध्यम से महिमा जी पुरुष के सदियों पुराने छल और स्त्री के उस छल में बार बार फँस जाने का मुखर विरोध दर्ज़ कराती हैं। “सदियों से / तुम्हारे मीठे बोल पर / डूबती उतराती रही / पर इस बार नहीं / देवता बनने का स्वाँग बंद करो / साथ चलना है, चलो / देहरी सिर्फ़ मेरे लिए / हरगिज़ नहीं...”।
‘चेतावनी’ कविता में महिमा जी सारे पुरुषों को अपना दृष्टिकोण बदलने अन्यथा परिणाम भुगतने की चेतावनी देती हैं। “सहचर बनो / सहयात्री बनो / नहीं तो / हाशिये पे अब / तुम होगे”।
‘बेटियाँ’ कविता के माध्यम से महिमा जी एक पिता से संवाद करती हैं। इस कविता में एक बेटी की पीड़ा को बड़े ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त करती हैं महिमा जी। “बनो मार्गदर्शक / जब तक नहीं बनेंगी साहसी / तब तक कभी भी / कहीं भी नहीं रहेगी सुरक्षित / समाज में बेटियाँ”।
‘तुम्हारे साथ’ कविता में महिमा जी ने एक सखी की हैसियत से सभी स्त्रियों को सम्बोधित किया है। “आँसुओं की काल कोठरी में / जीवन मत खोना / गमों की पोटली मत ढोना / हमारी दुआएँ / हैं तुम्हारे आस पास / तुम्हारे साथ।”
‘घड़ी आई है अब’ कविता के माध्यम से महिमा जी कहती हैं कि अब रूढ़ियों को तोड़ने का वक़्त आ गया है। “चौखटों के पार भी / है हमारी दुनिया / कुछ कर गुजरने का / हम भी रखते हैं दम ख़म”।
‘मैं जीना चाहती हूँ’ एक सशक्त कविता है जिसके माध्यम से महिमा जी कहती हैं कि “रोको मत मुझे / तुम्हारी मंजिल नहीं चाहिए / अपना रास्ता चुन लिया है मैंने / जीवन बिताना नहीं / मैं जीना चाहती हूँ”।
‘लड़की’ शीर्षक से लिखी दो कविताओं के माध्यम से महिमा जी लड़कियों की कोमल भावनाओं का सुन्दर वर्णन करती हैं और यह भी दर्शाती हैं कि समाज किस तरह से उस सुन्दरता को उस कोमलता को तोड़ फोड़ देता है। महिमा जी लड़कियों को चेतावनी भी देती हैं कि “उत्सव तो / अगले जन्म में नसीब होगा / या कई जन्मों के बाद / अभी तो उसे / यूँ ही / उत्सव का भ्रम है।”
‘कैसे करूँ मैं प्रेम’ कविता के माध्यम से महिमा जी महिलाओं पर पुरुषों के आत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं जो आगे जाकर ‘तुम सब ऐसे क्यों हो?’ कविता में और भी तेज़ हो जाती है। इन दोनों कविताओं के माध्यम से समाज में फैली बुराइयों पर कड़ा प्रहार किया है महिमा जी ने। जरा सी बात पर मुँह पर तेज़ाब फेंकने वाले मर्द से कैसे प्रेम किया जा सकता है?
‘बहने दो मुझे’ कविता ‘नदी सी मैं’ कविता की याद दिलाती है और लगता है कि उसी कविता को आगे बढ़ाया जा रहा है। इस संबंध में मुझे पॉल वालेरी की कही बात याद आती है कि “कविता कभी पूर्ण नहीं होती, केवल स्थगित होती है।” सचमुच ‘नदी सी मैं’ कविता स्थगित होकर दुबारा ‘बहने दो मुझे’ से पुनः शुरू होती है।
‘शर्त’ कविता में महिमा जी कहती हैं कि “कहाँ मंजूर थीं मुझे / सानिध्य के लिए शर्तें / ये कैसा साथ / जहाँ नहीं विश्वास”।
स्त्री पर लिखी कविताओं के अलावा महिमा जी की माँ पर लिखी कविताएँ सहज ही ध्यानाकर्षण करती हैं। ‘गुफ़्तगू माँ से’ शीर्षक कविता में महिमा जी कहती हैं “चिड़िया के बच्चे / जब उड़ना सीख जाते हैं / तो घोसलों को छोड़ / लेते हैं ऊँची उड़ान / और दूर निकल जाते हैं / मैं भी तो दूर निकल आई हूँ / बहुत दूर”।
‘परम्परा की थाती’ कविता में महिमा जी कहती हैं “माँ जानती हो / इन दिनों मेरे लिए / तुम साक्षात देवी हो जात हो / परम्परा की ये थाती / मैं भी सँभालूँगी एक दिन”।
‘माँ तुम्ही तो मेरा पहला प्यार हो’ कविता के माध्यम से महिमा कहती हैं “हर बार याद दिलाया / कि जीवन का मतलब है चलना / माँ एक तुम्हीं तो हो / जो हमेशा मेरे साथ हो”।
इसके अलावा महिमा जी ने समाज और दर्शन पर भी अपनी कलम चलाई है। महिमा जी की कविताओं में भाषा एवं भाव के स्तर एक बच्चे जैसी सरलता है। मगर ये सरलता कहीं कहीं सपाटबयानी तक पहुँच गई है विशेषकर समाज और दर्शन पर लिखी कविताओं में। किसी के पहले ही कविता संग्रह में परिपक्व शिल्प की अपेक्षा करना वैसा ही है जैसे दसवीं कक्षा के बच्चे से स्नातक में प्रथम स्थान प्राप्त करने की उम्मीद करना। लेकिन महिमा जी की कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब वो शिल्प को भी साध लेंगी।
अंत में मैं महिमा जी को इस प्रथम एकल कविता संग्रह के प्रकाशन पर ढेरों बधाईयाँ और भविष्य के लिए बहुत सारी शुभकामनाएँ देता हूँ।

धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश
16.03.2015
-------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 1414

Replies to This Discussion

आदरणीय धर्मेन्द्र जी आज अनायास इस समुह  में प्रवेश करते ही मेरे काव्य संग्रह पर की गई समीक्षा पर नजर पडी । यकिन मानिए इतनी अाश्चर्यमिश्रित खुशी हुई कि बयान नहीं कर सकती । मुझे  बिल्कुल संज्ञान नहीं था कि आपने समीक्षा लिखी है  और करीब एक महिना से उपर हो गया है पोस्ट हुए। 

कवि के तौर पर बेहद ईमानदारी से लिखी गई समीक्षा के लिए हृदय तल से आभारी हूँ । पुस्तक मेले में किए गए वादे को अापने गंभीरता से लिया , समय दिया इसके लिए  आभारी हूँ।

शुक्रिया  महिमा जी। मैं वादा करता हूँ तो निभाने की पूरी कोशिश करता हूँ। वैसे किसी अच्छे रचनाकार की समीक्षा विश्वसनीय नहीं होती। इसका कारण आस्कर वाइल्ड के शब्दों में कहूँ तो एक अच्छा रचनाकार जिस तरह की रचनाएँ वो करता है उन रचनाओं में ही इतना डूब जाता है कि उसे किसी और तरह की रचना अच्छी नहीं लगती इसलिए एक बेहतर समीक्षा वही लिख सकता है जो ख़ुद अच्छा रचनाकार न हो। आपको समीक्षा अच्छी लगी तो मुझे अपने रचनाकार होने पर संदेह हो रहा है। :)

// एक अच्छा रचनाकार जिस तरह की रचनाएँ वो करता है उन रचनाओं में ही इतना डूब जाता है कि उसे किसी और तरह की रचना अच्छी नहीं लगती इसलिए एक बेहतर समीक्षा वही लिख सकता है जो ख़ुद अच्छा रचनाकार न हो // 

ऑस्कर वाइल्ड अनगढ़ रचनाकार रहे होंगे. हा हा हा.. 

हा, हा, हा। आदरणीय सौरभ जी, उन्होंने कोई समीक्षा नहीं लिखी केवल समीक्षा के बारे में एक विस्तृत लेख लिखा है। उसे पढ़कर मैं आश्चर्यचकित रह गया। उनके अनुसार समीक्षा पक्षपात पूर्ण होनी चाहिए लेकिन पूर्वाग्रह से मुक्त होनी चाहिए और अच्छी समीक्षा अपने आप में एक रचना होती है उसमें समीक्षक वहाँ तक पहुँचता है जहाँ तक रचनाकार भी नहीं पहुँचा होता। बाकी रचनाकार तो वो खैर बहुत अच्छे थे।

जिस आत्मीय संलग्नता के साथ आदरणीय धर्मेन्द्रजी ने महिमा श्री की उनकी सद्यः प्रकाशित पहली पुस्तक पर अपने विचार रखे हैं उसमें शुभकामनाओं के भाव मुखर हैं.

इस पुस्तक के लोकार्पण आयोजन में महिमाश्री की इस पुस्तक पर मैंने कई बातें कहीं थीं, लेकिन अधिक बातें वो थीं जो मैंने नहीं कही थीं. महिमा को मेरे सम्बोधन के बाद शिकायत थी कि मैंने विशेष कुछ कहा क्यों नहीं था. वस्तुतः जब आठ पुस्तकॊं का समेकित लोकार्पण हो तो समय अधिक बड़ा कारण होता है जिसके बिना पर कोई आयोजन संचालित होता है. किन्तु, आज उस न कहे की भरपाई हो गयी.

हार्दिक शुभेच्छाएँ ..

शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी संतुलित समीक्षा के लिए बधाई   

आदरणीया महिमा श्री जी को  उनकी प्रकाशित पहली पुस्तक ‘अकुलाहटें मेरे मन की’ काव्य संग्रह हेतु शुभकामनायें ।

शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी

बहुत ही उम्दा बात कही आपने...वाकई दावं पर सबकुछ तो रचनाकार का ही लगा होता है. शब्द चुनाव के लिए विशेष बधाई 

शुक्रिया आदरणीय गौरव जी

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"अनुज बृजेश , प्रेम - बिछोह के दर्द  केंदित बढ़िया गीत रचना हुई है , हार्दिक बधाई आदरणीय…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय रवि भाई  ग़ज़ल पर उपस्थिति  हो  उत्साह वर्धन  करने के लिए आपका…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"अनुज बृजेश ,  ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभार , मेरी कोशिश हिन्दी शब्दों की उपयोग करने की…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय अजय भाई ,  ग़ज़ल पर उपस्थिति हो  उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार "
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आ. नीलेश भाई ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिए आपका आभार "
23 hours ago
Ravi Shukla commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"आदरणीय अजय जी किसानों को केंद्र में रख कर कही गई  इस उम्दा गजल के लिए बहुत-बहुत…"
yesterday
Ravi Shukla commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आदरणीय नीलेश जी, अच्छी  ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें. अपनी टिप्पणी से…"
yesterday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाई जी नमस्कार ग़ज़ल का अच्छी प्रयास है । आप को पुनः सृजन रत देखकर खुशी हो रही…"
yesterday
Ravi Shukla commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आदरणीय बृजेश जी प्रेम में आँसू और जदाई के परिणाम पर सुंदर ताना बाना बुना है आपने ।  कहीं नजर…"
yesterday
बृजेश कुमार 'ब्रज' posted a blog post

गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

सार छंद 16,12 पे यति, अंत में गागाअर्थ प्रेम का है इस जग मेंआँसू और जुदाईआह बुरा हो कृष्ण…See More
Thursday
Deepak Kumar Goyal is now a member of Open Books Online
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service