आदरणीय सदस्यगण 84वें तरही मुशायरे का संकलन प्रस्तुत है| बेबहर शेर कटे हुए हैं, और जिन मिसरों में कोई न कोई ऐब है वह इटैलिक हैं|
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
नजरों के तीर दिल में चुभा कर चले गये,
घायल को छोड़ आँख बचा कर चले गये।
चुग्गा वे शोखियों का चुगा कर चले गये,
सय्याद बनके पंछी फँसा कर चले गये।
आना भी और जाना भी उनका था हादसा,
अनजान से ही मन में समा कर चले गये।
जब दर्द ये दिया है तो क्यों दी न बेरुखी,
(अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गये।)
सहरा में है सराब सा उनका ये इश्क़ कुछ,
पूरे न हो वो ख्वाब दिखा कर चले गये।
ताउम्र क़ैद चाहता था अब्रे जुल्फ़ में,
काली घटा से प्यास बढ़ा कर चले गये।
अब तो 'नमन' है चश्मे वफ़ा का ही मुंतज़िर,
ख्वाहिश हुजूर क्यों ये जगा कर चले गये।
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Tasdiq Ahmed Khan
नागाह वो निगाह मिला कर चले गए |
दिल में चरागे इश्क़ जला कर चले गए |
पर्दे से इक झलक वो दिखा कर चले गए |
होशो हवास मेरे उड़ा कर चले गए |
हर हर क़दम पे उनको दुआ दे रहा है दिल
जो रास्ते में खार बिछा कर चले गए |
जब अंजुमन में बाज़ नहीं आया एब जू
इक आइना वो उसको थमा कर चले गए |
कल उनसे हो गया था दो राहे पे सामना
देखा मुझे तो आँख बचा कर चले गए |
हम मंज़िले हयात को पाएँगे किस तरह
कुछ दूर ही वो साथ निभा कर चले गए |
शिकवा अगर है कोई तो है उनसे सिर्फ़ यह
अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गए |
जा कर कोई बता दे पड़ोसी मेरे हैं वो
जो मेरे घर को आग लगा कर चले गए |
सब सूँगते हैं यूँ न मुझे फूल की तरह
लगता है वो ख़यालों में आ कर चले गए |
अपनों ने आँख फेर लीं गैरों को क्या कहूँ
जिस दिन से वो नज़र से गिरा कर चले गए |
तस्दीक़ आग पानी में यूँ ही नहीं लगी
दरया में सुबह दम वो नहा कर चले गए |
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शिज्जु "शकूर"
“अल्फ़ाज़ के ख़ज़ाने लुटाकर चले गए
शाइर हयात में कई आकर चले गए
खुद मुफ़लिसी में जिए उम्र भर मगर
जर्रों को आफ़ताब बनाकर चले गए”
आए थे दनदनाते हुए रेल की तरह
लेकिन हुज़ूर भाव न पाकर चले गए
जब हक़बयानी मेरी न आई पसंद तो
नीयत पे सौ सवाल उठाकर चले गए
कुछ रोज़ मैं झटकता रहा हाथ ख्वाबों का
अब ख़्वाब मेरा हाथ छुड़ाकर चले गए
ताउम्र ये मलाल रहेगा कि वो ‘शकूर’
“अपना सा क्यों न मुझको बनाकर चले गए”
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satish mapatpuri
आये जरूर दिल को जला कर चले गए ।
जो घाव था नासूर बना कर चले गए ।
ग़मगीन भला किसके लिये है यहाँ कोई ,
एक रस्म था जो फूल चढ़ा कर चले गए ।
वो खुदकुशी को भी सियासत बना दिया ,
आतिश बुझाने आये लगा कर चले गए ।
काश ! बदलने का हुनर सीख लेते हम ,
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए ।
मापतपुरी बह्र में कभी आते नहीं तुम ,
दिल में जो भी आये सुना कर चले गए ।
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
बाते यहाँ वहाँ की घुमाकर चले गए
हमसे हमारा राज छुपाकर चले गए।1।
मंजिल के पास हमको वो लाकर चले गए
गम का जखीरा जैसे थमा कर चले गए।2।
किस्मत थी ऐसी यार कि आवारगी मेरी
गैरों सा अपने हाथ छुड़ाकर चले गए।3।
यादों ने उनकी ख्वाब भी सजने नहीं दिया
लग भी न पाई आँख जगाकर चल गए।4।
आना था उनका यार कि खलबल मची बहुत
पानी में जैसे आग लगाकर चले गए।5।
चर्चा है हर तरफ कि बेढ़ब अजब थे वो
सूरज को आइना जो दिखाकर चले गए।6।
सुनते थे महफिलों में कि बेबाक है बहुत
हमसे मिले तो होंठ दबाकर चले गए।7।
उनको अगर गुरूर था अपने हुनर का जब
‘अपना सा क्यूँ न मुझको बनाकर चले गए’।8।
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दिनेश कुमार
दुनिया के रंग-मंच पे आ कर चले गये
किरदार जो मिला था निभा कर चले गये
कितने ही नामदेव तुकाराम औ'र कबीर
जीने का हमको ढंग बता कर चले गये
जीवन की पाठशाला का सीखा न ककहरा
कुछ लोग सिर्फ़ वक़्त बिता कर चले गये
सच बोलने का उनको ही तमग़ा दिया गया
जो आईने को पीठ दिखा कर चले गये
रिश्तों को भूलने में थे माहिर तमाम दोस्त
“अपना सा क्यों न मुझको बनाकर चले गए”
हम बे-हुनर कहें कि उन्हें बा-हुनर 'दिनेश'
आँगन को ही जो टेढ़ा बता कर चले गये
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अजय गुप्ता
अपनी रवायतों को निभा कर चले गए
फिर से पुराने दर्द रुला कर चले गए
जिनसे भी मुझको ज़ख्म पे मरहम की आस थी
नश्तर के जैसे लफ्ज़ चुभा कर चले गए
वो जो मिजाज़ पूछने आए बीमार का
उसकी सुनी न अपनी सुना कर चले गए
अंजान हैं जो धूप से मिट्टी के रंग से
सरकार ऐसे लोग चला कर चले गए
ज़िंदादिली से हम भी तो जी लेते ज़िन्दगी
~* अपना सा क्यों न मुझ को बना कर चले गए *~
दुनिया दिखे मुझे न मेरा दुनिया को पता
यादों की धूल इतनी जमा कर चले गए
साँसों के साथ आ रही है खाक जिस्म की
ऐसी जिगर में आग लगा कर चले गए
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Ram Awadh VIshwakarma
अच्छे भले में आँख दिखाकर चले गये।
सबको वो चार बात सुनाकर चले गये।
बुझती नहीं है लाख बुझाने के बावजूद,
ऐसी वो आग दिल में लगाकर चले गये।
तूफान दो घड़ी को ही आये तो थे मग़र
बर्षों पुराना पेड़ गिराकर चले गये।
करने को आप आये थे दुश्मन से दो दो हाथ,
फिर क्या हुआ जो हाथ मिलाकर चले गये ।
जाने कहाँ से आये थे अनजान राहगीर,
पनघट पे अपनी प्यास बुझाकर चले गये।
राई को चन्द लोगों ने पर्वत बना दिया,
लत्ता को लोग साँप बनाकर चले गये।
इस बात का मलाल भी करना फिजूल है,
"अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गये।"
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rajesh kumari
आटा व दाल पार लगा कर चले गये
मेहमान अपना बैंड बजा कर चले गये
आये थे चार दिन के लिए बीस दिन मगर
मुझको वो चाँद तारे दिखा कर चले गए
लड्डू तलक भी एक न लाये मेरे यहाँ
किशमिश बदाम काजू सफा कर चले गये
घोड़े की तरह दिल की मेरी धड़कने बढ़ी
बिजली का बिल मेरा जो बढ़ा कर चले गये
दोचार भी नहीं थे वो पूरी बरात थी
छोटा है घर मेरा ये बता कर चले गये
भगवान का ही रूप है मेहमान मानिए
वो जाते जाते पाठ पढ़ाकर चले गये
सुख चैन जो लुटा सो लुटा साथ में मगर
सामान भी मेरा वो उठाकर चले गये
अंदाज बोलने का तभी से हुआ है तल्ख़
बीबी को घुट्टियाँ वो पिलाकर चले गये
तैयार हमने की थी मुहब्बत से वो जमीन
वो बीज तल्खियों के उगा कर चले गए
माज़ी के जो बुझे थे शरारे भड़क गये
जब आज उनपे अपने हवा कर चले गए
रहता ये दिल सुकून से उनकी तरह मेरा
अपना सा क्यूँ न मुझको बनाकर चले गये
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Nilesh Shevgaonkar
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सोया पड़ा था दर्द, जगा कर चले गये,
कुछ दोस्त याद उनकी दिला कर चले गये.
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इक हम जो अपनी जान लुटा कर चले गये
इक वो जो अपनी पीठ दिखा कर चले गये.
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लम्बे सफ़र की रात में दुनिया सराय है
हम भी यहाँ पे रात बिता कर चले गये.
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बे-आब आँखें हो गयीं चुभने लगी है रेत
आँखों को रेगज़ार बना कर चले गये.
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इस दिल पे कोई ताब रहा ही नहीं मेरा
कैसा अजीब रोग लगा कर चले गये
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मुझ को गुमाँ था यार मेरे देंगे मेरा साथ
मौका पड़ा तो हाथ दबा कर चले गये.
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उम्मीद थी सुनेंगे सभी की, मगर..नहीं
वो अपने मन की बातें सुना कर चले गये.
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दिल में मलाल ले के यही चल बसे जिगर
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए.
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Amit Kumar "Amit"
ता-ज़िंदगी के वादे भुला कर चले गए I
तुम तो अभी से हाथ छुड़ा कर चले गए II १ II
अपना बना के यार मेरे हो गए मगर I
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए II २ II
आवाद ज़िंदगी को यूँ बर्बाद कर के तुम I
बेबजह यार मुझको रुला कर चले गए II ३ II
बुझ ही चुकी हो जैसे ये उल्फत की आग भी I
ऐसे ही मेरे दिल को जला कर चले गए II ४ II
आज़ाद हूँ मैं अब तो "अमित" ये बताओ क्यों I
यादों मैं अपनी मुझको फसां कर चले गए II ५ II
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Majaz Sultanpuri
जादू वो कोई ऐसा चला कर चले गए
दीवाना सारा शहर बनाकर चले गए
आना है आपको भी मेरी रुख़सती के वक़्त
अपनी कसम वो मुझको खिला कर चले गए
मैंने कहा सुनाईये अशआर कुछ नये
मेरी ग़ज़ल वो मुझको सुना कर चले गए
देखो तो ऐसी माँओं को जिनके जवान लाल
सरहद पे अपनी जान फ़िदा कर चले गए
परदेस का सफ़र है तो आंखें हैं अश्कबार
अहबाब अपने हाथ हिला कर चले गए
नक़्क़ादे वक़्त मुझ पे नवाज़िश का शुक्रिया
अज़मत को मेरी और बढ़ा कर चले गए
मैं अब भी तेरी याद से ग़ाफ़िल न हो सका
"अपना सा क्यों ना मुझको बनाकर चले गए"
होंगे सुकूँ से आप तो ख़्वाबीदा-ए-हसीं
रातों को मेरी नींद उड़ा कर चले गए
जाना ही था अगर तो मुझे क्यों दिया फ़रेब
क्यों मुझको सब्ज़बाग़ दिखा कर चले गए
साहिल पे बेख़ुदी में जो लिखा था एक नाम
उसको हवादिसात मिटा कर चले गए
आये ख़याल उनके सरेशाम जब 'मजाज़'
बज़्म-ए-तख़्युल्लात सजा कर चले गए
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Mahendra Kumar
हम यूँ चराग़-ए-इश्क़ जला कर चले गए
लौ आँधियों के पास बिठा कर चले गए
मेले से हाथ ख़ाली उठा कर चले गए
हम लोग वक़्त यूँ ही बिता कर चले गए
तूफ़ाँ से लाए थे कभी कश्ती निकाल कर
साहिल पे आज उसको डुबा कर चले गए
मेरी तरह ही ढूँढते फिरते थे इश्क़ को
मेरी तरह ही ख़ाक उड़ा कर चले गए
ख़ुद से ही की है हमने सदा ख़ुद की देखभाल
रूठे ख़ुदी से ख़ुद को मना कर चले गए
उसको था ये ग़ुरूर कि मंज़िल है वो मेरी
हम रास्तों से हाथ मिला कर चले गए
अपना नहीं है ख़ुद वो तो फिर क्या ये पूछना
"अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए"
दुनिया के रंगमंच पे अभिनय दिखाना था
लेकिन दरी ये लोग बिछा कर चले गए
जन्नत की थी हमें भी हक़ीक़त पता रफ़ीक़
सहरा से प्यास अपनी बुझा कर चले गए
मिलने ख़ुदा से आए थे बारिश की आस में
संसद भवन में आग लगा कर चले गए
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Samar kabeer
उम्मीद का चराग़ जला कर चले गए
फिर मझको सब्ज़ बाग़ दिखा कर चले गए
पूछा जो बेरुख़ी का सबब उनसे दोस्तो
दाँतों से होंट अपना चबा कर चले गए
बैठा रहा मैं हिज्र के क़िस्से लिये हुए
वो अपनी दास्तान सुना कर चले गए
बस ये ख़ता थी,चूम लिया मैंने फूल को
वो मुझसे अपना हाथ छुड़ा कर चले गए
ता उम्र ये मलाल रहा दिल में दोस्तो
"अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गए
ये कह के,देखना है जुनूँ तेरा ऐ "समर"
राहों में मेरी ख़ार बिछा कर चले गए
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किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो अथवा मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हो तो अविलम्ब सूचित करें|
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जनाब राणा प्रतापसिंह साहिब , ओ बी ओ ला इव तरही मुशायरा अंक 84 के संकलन और कामयाब निज़ामत के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I
जनाब राणा प्रताप सिंह जी आदाब,संकलन के लिए बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी, ये शेर किस तरह बेबह्र है मुझे समझ नहीं आया. कृपया शंका निवारण करने का कष्ट करें:
221 2121 1221 212
मेरी त/रह ही ढूँढ/ते फिरते थे /इश्क़ को
मेरी त/रह ही ख़ाक/ उड़ा कर च/ले गए
सादर.
तरह का वज़्न 21 होना चाहिए
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय. मुझे इसकी जानकारी नहीं थी. संशोधित मिसरा शीघ्र ही पेश करता हूँ. सादर.
आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी, कृपया इस शेर को :
//मेरी तरह ही ढूँढते फिरते थे इश्क़ को
मेरी तरह ही ख़ाक उड़ा कर चले गए//
इस शेर से प्रतिस्थापित कर दीजिए :
सब मेरी तरह ढूँढते फिरते थे इश्क़ को
सब मेरी तरह ख़ाक उड़ा कर चले गए
और गिरह के ऊला मिसरे को इस तरह :
अपने नहीं हैं ख़ुद वो तो फिर क्या ये पूछना
सादर
'तरह'12 और "तर्ह"21 दोनों ही दुरुस्त हैं,मुहतरम ।
सर अगर ये बात है तब तो मेरा पहले का शेर ही सही था. अब मैं उसे ही रखूँगा. :)
जी,ठीक है ।
जनाब समर साहब आदाब हमने भी यही सुना था की, तरह 1 2 और तर्ह 21 दोनों मे बांधा जा सकता
मगर पूछने की हिम्मत नहीं कर प रहे थे आपने दुविधा दूर कर दी शुक्रिया ...
पूछना चाहिए था,ये ओबीओ है भाई ।
जी ठीक है तब मैं मिसरों को पूर्ववत कर देता हूँ|
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