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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-52 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1) . डॉ० टी.आर सुकुल जी
घड़ी
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उस समय की चौथी क्लास तक पढ़े ‘भदईं’, गाॅंव के कुछ इने-गिने पढ़े लिखे लोगों में माने जाते थे। शहर के किसी बीड़ी उद्योगपति ने गाॅंव में खोली कंपनी की ब्राॅंच में भदईं को मुनीम के सहायक के काम में लगा लिया। रोज़ सही समय पर कंपनी में पहुँच सकें इसलिए भदईं ने एक कलाई घड़ी खरीदी जो गाँव में शायद उन्हीं के पास सबसे पहले आई थी। घर से कंपनी तक जाते आते समय भदईं से रास्ते भर बुज़ुर्ग और बच्चे सभी पूछा करते, “काय भदईं! कित्ते बज गए?” और भदई बड़ी शान से घड़ी को देखते, थोड़ी देर कुछ गणना करते फिर समय बता दिया करते। जबसे भदईं ने घड़ी खरीदी लोग रास्ते में तो समय पूछते ही थे कभी किसी के यहाॅं किसी बच्चे का जन्म होता तो उसी समय दौड़कर भदईं के घर जाकर समय पूछता। इसी क्रम में एक दिन, रास्ते में “गिल्ली डन्डा” खेल रहे लड़कों में से एक ने, वहीं से जाते हुए भदईं से पूछा, “काय भदईं! कित्ते बज गए?” भदईं समय बताने के लिए अपनी घड़ी देख ही रहे थे कि खेल देख रहे एक बुज़ुर्ग बोले, “काय रे! का तोय कोरट में पेशी पे जाने है जो कित्ते बजे हैं, पूछ रव है?” 
यह सुनते ही अन्य लड़के हँसने लगे और भदईं भी हँसते हुए आगे बढ़ गए। लड़का तुरंत घर आकर अपनी माॅं से बोला, 
“काय बउ! जा कोरट की पेशी का कहाउत?” 
माॅं इसे सुनते ही दस साल पहले हुई घटना को चलचित्र की तरह देखने लगी जिसमें भाइयों में ज़मीन के बंटवारे संबंधी झगड़े में कोर्ट-कचहरी और बकीलों के चक्कर लगाते उसके पति को ज़ेवर बेचना पड़े और इतना तक कि गाँव के धनी लोगों से कर्ज़ा लेना पड़ा फिर भी उसे अपना हक़ नहीं मिला तब आत्महत्या जैसा क़दम उठाना पड़ा था। आँखों में उमड़ती आँसुओं की धारा को रोकने का प्रयास करते हुए उसने लड़के को अपने पास खींचकर कहा, 
“देख रे! कोरट और पेशी के चक्कर में नें परिए और नें कबऊं बकीलों के फेर में रइए। मेंनत मंजूरी करकें आदे पेट रइए मनों कबऊं कर्ज़ा नें करिए, समज रव है के नईं?” 
इसी बीच भदई बापस लौटते हुए वहाॅं से निकले, लड़के की माॅं ने घूँघट की ओट लेते हुए कहा, 
“दाउ जू! तनक ए लरका खों समजाव और कछु काम में लगा ले, कहॅुं दंद फंद नें कर बैठे?” 
भदईं घड़ी वाले हाथ से कान खुजलाते अपने स्वभावानुसार कुछ सोचकर बोलने वाले ही थे कि “घड़ी” चमकते हुए बोल पड़ी, 
“गम्म खाव बहू! तनक पढ़ लिख कें मोड़ा खों कछु बड़ो तो हो जान दे फिर हिल्ले सें लगई जैहे।” 
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(बुंदेली शब्द, काय= क्यों। कित्ते=कितने। कोरट= कोर्ट। बउ= माॅं। जा= यह। नें= नहीं। मेंनत मंजूरी= मेंहनत और मज़दूरी। आदे पेट रइए= भर पेट भोजन न भी मिले तब भी। मनों कबऊं= लेकिन कभी। करिए= करना। समज= समझ। रव= रहा। तनक= थोड़ा। मोंड़ा= लड़का। दंद फंद= झगड़ा झंझट। गम्म खाव= धीरज रखो। हिल्ले= स्थायी काम। लगई जैहे= लग ही जाएगा) 
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(2) . कनक हरलालका जी
चूड़ियों वाले हाथ
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“भाई, ज़रा वे हरे रंग वाली चूड़ियाँ देना। और हाँ ज़रा ध्यान से, टूटी हुई न हो।” 
“अरे, वीरेंद्र, यार बहुत दिनों बाद दिखलाई पड़े। क्या ख़बर है? और तुम!! चूड़ियाँ ख़रीद रहे हो!! पुरुषत्व की बहादुरी बखानने वाले, औरतों की ऐसी तैसी करनेवाले, चूड़ियों को औरतों की कमज़ोरी की निशानी समझने वाले। बात-बात में चूड़ियाँ पहन लो कहनेवाला आज चूड़ियाँ ख़रीद रहा है!!” 
“हाँ दोस्त, अपनी दौलत और ताक़त के नशे में ऐय्याश मैं अपनी धन, दौलत, सेहत, रुतबा सब खो बैठा था। बच्चे, माँ, बाप, परिवार सभी के सड़क पर आने के से हालात बन गए थे। ऐसे में तेरी भाभी ने ही अपनी बुद्धि, त्याग और साहस से सब संभाला। यहाँ तक कि एक बार शराब के नशे में कुछ गुण्डों के जानलेवा हमले से भी उनकी बहादुरी के कारण मेरी प्राणरक्षा हुई। उसीदिन मुझे पता चला कि चूड़ियाँ पहनने वाले हाथ ख़ूबसूरत ही नहीं ताक़तवर भी होते हैं। और हाँ ये चूड़ियाँ नहीं वीरता का मैडल हैं।” 
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(3) . मनन कुमार सिंह जी
प्रेयसी
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प्रेयसी रसोद्वेलित होगी, ऐसा पुरुष को यदा-कदा एहसास होता। ऐसा प्रायः दैहिक साहचर्य-क्रिया के शिखर पर होता था। वह ख़ुद को निहाल महसूस करता। समय गुज़रता गया। आग जलती, बुझती। फिर जल जाती। वह सुलगता। उसे बुझाने की लालसा बलवती होती जाती। और वह धरती अपने आकाश से टपकती ज्वलित बूँदों के प्रहार से आहत होती। ओह! और हाय का यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। 
फिर धीरे-धीरे अंग-संघर्ष कृत्योपरांत की मलिनता प्रेयसी ने उजागर की। उसका तथ्य था कि वह कृत्य भला ग्राह्य क्यों हो, जिसका अवसान मालिन्य जनक है। ख़ैर संतानोत्पत्ति की हद तक उसे मान्यता देने में उसे कोई ज़्यादा आपत्ति नहीं थी। 
फिर कुछ अर्से बाद स्पष्ट हुआ कि रति-क्रिया तो उसके लिए नितांत पीड़ादायी है। वह तो अपने प्रियतम की ख़ातिर सब कुछ झेलती जाती है। हाँ, उमगते उद्गार से उमंगों का पारावार पा लेने की उत्कंठा कभी-कभार ज़रूर मुखर हो हो जाया करती थी। अब नहीं होती। उम्र भी तो कोई चीज़ है। 
अब प्रियतम के आहत महसूस करने की बारी है। वह सोचता है कि सिर्फ़ मेरे लिए उसने काफ़ी कष्ट झेल लिए। मैंने किया ही क्या उसके लिए? बस उसके मनोभावों की आड़ में उसके जिस्म से खेला हूँ अबतक। पर अब ऐसा नहीं होगा। प्रण है मेरा। और अरमानों के कुलाँचे भरने पँर वह मुँह फिराकर सोने की कोशिश करता है, गुड नाईट कहकर। जवाब में भी गुड नाईट मिलती है। पर जब वह ऊँघता होता है, तो छोटा तकिया या छोटी तौलिया मुँह पर हल्के-से पड़ जाते हैं। स्नेह-सूचना का सन्दर्भ है यह सब। फिर सब कुछ यथावत् चलता रहता है। अनुरक्ति-विरक्ति मनोभावों की अनुगामिनी हैं। वे सदा बरक़रार रहती हैं। हाँ, हर चीज़ के मुखर होने का अपना समय होता है। 
पार्क में बैठा प्रियतम यही सोच रहा था कि मोबाइल घनघना उठा। 
‘कहाँ हो?’, प्रेयसी की आवाज़ आई। 
‘बस आ रहा हूँ। पार्क में था।’ 
‘रात की बाते भुला देना। वह वक़्त का झोंका था, और कुछ नहीं।’ 
वह बोला कुछ नहीं। घर की ओर चल पड़ा। 
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(4) . मोहन बेगोवाल जी
अस्तित्व
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इंटरव्यू चल रही थी। कमरे के बाहर खड़ा मुलाज़िम लिस्ट में लिखे नाम के अनुसार आवाज़ देकर इक-इक कैंडिडेट को अंदर भेज रहा था। इंटरव्यू लेने वाले लोग, कैंडिडेट से उसकी योग्यता व् काम करने की क्षमता के बारे सवाल पूछ रहे थे। 
साथ-साथ इक मैंबर प्राथना पत्र के साथ लगे दस्तावेज़ देखकर उनको कह रहा था रिज़ल्ट आपको शाम तक बता दिया जाएगा और सिलेक्ट होने वालों की लिस्ट नोटिस बोर्ड पर लगा दी जाएगी। इस जब दरवाज़े पर खड़े मुलाज़िम ने आवाज़ लगाई तो इक साथ दो लोग कमरे में तेज़ी से दाखल हुए, मर्द और औरत, दरवाज़े पर खड़े दूसरे मुलाजिम ने उन्हें रोकने की कोशिश की, “देख भाई, आप अपनी बारी पर इक-इक क अंदर आएँ।” 
“बीबी, मैंने आपका नाम पुकारा था, ये आपके साथ कौन हैं?, आप बाहर रहें।”, उसको मुलाज़िम ने कहा
“जी, ये मेरे घर वाले हैं।” औरत ने जवाब दिया
“मगर इंटरव्यू तो आपकी है।”, सेंटर वाली कुर्सी पर बैठे अफ़सर ने कहा
“भाई साहिब, आप बाहर जाएँ।”, दरवाज़े पर खड़े मुलाज़िम ने फिर कहा
मगर वह वहीं खड़ा रहा, उसकी औरत भी कह रही थी जी, “इस को यहीं रहने दो।”, सर जी
इंटरव्यू लेने वालों ने उसका रिकार्ड देखा और उनसे कुछ सवाल किए, उन्होंने उससे भी वही सवाल पूछा के जो औरत केंडिडेट से पूछा जा रहा थ। 
अगर आपको हम सिलेक्ट कर लेते हैं, तो तुम वहाँ जा कर नौकरी करने को तैयार हो। 
औरत कुछ देर चुप खड़ी सोचती रही, मगर तभी उसका पति बोला। 
“जी, में भी तो पढ़ा लिखा हूँ, आप इस सिलेक्ट कर लो, काम तो मैं भी कर दिया करूँगा।” 
“नौकरी इसकी, ड्यूटी आप कैसे करंगे।” 
“क्यों नहीं, सर जी, मेरी भाभी भी तो सरपंच है, उसका सारा काम भी तो मेरा भाई ही करता है, कभी कोई एतराज़ नहीं करता। 
हम भी तो आपको अच्छा काम करके दिखाएंगे, कमरे में सभी लोग उसकी तरफ़ हैरान होकर देखने लगे। 
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(5) . विनय कुमार जी
अपनी पहचान
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बादल तो कई घंटों से छाये हुए थे लेकिन बूँदें बरसने का नाम ही नहीं ले रही थीं. पूरा महीना बीतने को आया, इस बार धान का बेहन तक नहीं पड़ पाया है, राजन खेत के मेड़ पर बैठा यही सब सोच रहा था. घर में जाने पर घरवाली का चिंतित चेहरा देखकर उसको सहन नहीं होता था. दरअसल वह कुछ कहती नहीं थी, बस ख़ामोशी से उसका मुँह देखती. और उसका कुछ नहीं बोलना ही उसे अंदर तक सालता था. पिछले साल तो फिर भी जुलाई के आख़िर में बारिश हो गई थी और उसने धान का बेहन डाल दिया था.
“तुम भी आ जाओ शहर, गाँव में कुछ नहीं रक्खा है. कम-से-कम यहाँ दिनभर की मेहनत के बाद रोटी तो नसीब हो जाती है, रहने के लिए भले नर्क जैसी जगह है”, पिछले हफ़्ते भी उसके दोस्त हरी ने फ़ोन पर कहा था. उसने मना कर दिया था, यहाँ उसकी पहचान तो है, वहाँ कौन पहचानेगा. घरवाली से भी जब उसने बात की तो उसने भी हामी नहीं भरी. वह भी एक किसान की बेटी थी और अब तक के जीवन में उसने खेती बाड़ी के इलावा कुछ नहीं देखा था.
“थोड़ी दिक्कत तो है लेकिन चला लेंगे गृहस्थी किसी तरह. मेरे मामा भी शहर रहते हैं, मैं एक बार कुछ दिनों के लिए वहाँ गई थी लेकिन उस बदबू और घुटन में मैं जी नहीं पाऊँगी”, घरवाली ने धीरे-से कहा था.
एक ही तो गाय है घर में और दो लोग, चला लेंगे किसी तरह से, सोचते हुए वह उठा. कुछ क़दम ही चला होगा कि बरसात शुरू हो गई और घर तक पहुँचते पहुँचते जम के बारिश हो रही थी. दरवाज़े पर एक तरह उसकी गाय तो दूसरी तरफ़ घरवाली बरसात में भींग रहे थे, मानो पिछले कई महीने के सूखे को शरीर से निकाल फेंकना चाहते हों. उसने धीरे-से घरवाली का हाथ पकड़ा और दोनों देर तक उस बरसात में भीगते रहे.
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(6) . आसिफ़ ज़ैदी
अस्तित्व
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वृद्धाश्रम मैं रवि अपने पिता किशन जी और माता सुमित्रा देवी से कह रहा था। ‘अपने घर चलो हम से ग़लती हुई, इसलिए तुम्हारी बहू भी शर्म के मारे तुम्हारा सामना नहीं कर पा रही है उसने मुझे लेने भेजा है कि माँ बाबूजी को लेकर ज़रूर आना “। 
किशन जी कह रहे थे। 
‘ मुझमें अब वह ताक़त नहीं रही कि मैं घर का सौदा सुलूक ठीक से कर सकूँ और वह शक्ति भी नहीं कि तेरी पत्नी की बातें सुनकर बर्दाश्त कर सकूँ, “अगर तेरी माँ जाना चाहे तो मैं नहीं रोकूंगा’! 
माँ ने उनकी तरफ़ देखा और नज़रें नीची कर लीं। 
रवि के लाख आग्रह करने के बाद भी किशन जी नहीं माने और रवि मजबूर होकर लोट गया। 
(यह परिवर्तन आख़िर क्यों आया) 
वह भी 15 महीने के बाद? 
रवि के बेटे प्रकाश ने मासूमियत से माँ-बाप से पूछा। 
“दादा-दादी वृद्धा आश्रम में क्यों रह रहे हैं ‘? 
दोनों पति पत्नी ने बात बनाते हुए कहा:-
“हमारे घर से ज़्यादा अच्छा जीवन वे वृद्धा आश्रम में जी रहे हैं वहाँ उन्हें बहुत आराम है और उनके नए दोस्त व साथी भी वहाँ उनको मिल गए हैं, इसलिए बाक़ी का जीवन वहीं बीते तो ठीक है”! इसपर भोलेपन से प्रकाश ने कहा:
“तो क्या आपको भी बुढ़ापे में वहीं रहना पड़ेगा ‘? क्या मेरे साथ नहीं रहेंगे, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा”? 
यही बात थी के रवि को और उसकी पत्नी को अपना अस्तित्व ख़तरे में नज़र आया और बहू जो बहुत ज़्यादती कर चुकी थी, अपने सास-ससुर से नज़रें मिलाने के लायक़ भी नहीं रही थी, इसलिए उसने रवि को भेजा था उनको ले आने! 
लेकिन वो नहीं आए....। 
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(7). तेजवीर सिंह जी
नया फ़रमान
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बीती रात लाल कृष्ण जी का स्वर्गवास हो गया। दोपहर तक दाह-संस्कार का इंतज़ाम करके लोग शव को श्मशान लेकर पहुँचे। श्मशान की व्यवस्था देख सब चकित हो गए। मुख्य द्वार पर इलेक्ट्रोनिक गेट। चार चार वर्दीधारी तैनात। लोगों ने उनसे गेट खोलने के लिए कहा। उन्होंने गेट के साथ वाले कार्यालय से संपर्क करने को बोला। कुछ लोग कार्यालय पहुँच गए। उन्हें कार्यालय के बाहर लगे बोर्ड पर नियम क़ायदे पढ़ने और उनके अनुसार कार्य करने को कहा। जिसे पढ़कर कुछ लोग उग्र होने लगे। कुछ बुज़ुर्ग भी थे। उन्होंने समझाया, “सब्र से काम लो। उतावली से काम नहीं बनेगा।” 
“बाबूजी, आपको पता है कि बोर्ड पर क्या नियम लिखे हैं?” 
“बेटा जो भी लिखा है सरकारी आदेश है। मानना तो पड़ेगा ही।” 
“इसमें लिखा है कि अब दाह-संस्कार केवल सरकार द्वारा अनुबंधित शव दाह गृह में ही होगा। अन्यत्र दाह-संस्कार करना ग़ैर क़ानूनी होगा। जिसकी सज़ा पाँच साल जेल और बीस हज़ार रुपये जुर्माना होगा।” 
“यानी कि अब शव दाह गृह भी सरकारी हो गए।” 
“नहीं बाबूजी, यह भी प्राइवेट कंपनी को बीस साल के लिए ठेके पर दिये गए हैं।” 
“बेटा फिर तो भारी फ़ीस भी लगेगी।” 
“जी बिल्कुल, बिजली से दाह-संस्कार कराने पर दस हज़ार और लकड़ी कंडे की आग से कराने पर बीस हज़ार रुपये लगेंगे।” 
“और भी कुछ क़ायदे क़ानून हैं इसके अतिरिक्त।” 
“जी हाँ, और भी बहुत कुछ है। मृत व्यक्ति के समस्त डॉक्यूमेंट जैसे वोटर आई डी, आधार कार्ड, पेन कार्ड, राशन कार्ड और पासपोर्ट आदि मूल रूप में यहाँ ले लिए जाएँगे।” 
“वह सब किसलिये?” 
“व्यक्ति की मृत्यु के बाद ये कागज़ात सरकारी संपत्ति होंगे जिन्हें वापस करना अनिवार्य होगा ताकि अन्य कोई इनका दुरुपयोग न कर सके।” 
“और भी कुछ है क्या?” 
“आगे तो और भी कठिन नियम हैं।” 
“वह भी बता दे बेटा जल्दी से। वैसे ही दाह-संस्कार में बहुत देरी हो चुकी है। सूरज छिपने वाला है।” 
“मृत व्यक्ति का दाह-संस्कार केवल उसका पुरुष वारिस ही कर सकता है। उसके लिए वारिस को सबूत के तौर पर अपने आई डी और निवास प्रमाण पत्र एक शपथ पत्र के साथ जमा कराने होंगे। जिससे कि भविष्य में कोई क़ानूनी अड़चन आने पर उसे जिम्मेदार ठहराया जा सके|” 
“और जिसका कोई पुरुष वारिस ना हो उस मामले में क्या होगा।” 
“ऐसे मामलों में मृत व्यक्ति को अपने जीवित रहते ही नोटरी से एक शपथ पत्र बनवाना होगा कि उसका दाह-संस्कार का अधिकारी कौन होगा। शपथ पत्र के साथ में उस अधिकृत व्यक्ति का सहमति पत्र भी लगाना होगा| उसपर दो सम्मानित व्यक्तियों को गवाह के रूप में हस्ताक्षर भी कराने होंगे।” 
“लेकिन बेटा लाल कृष्ण जी का तो कोई वारिस भी नहीं था। और उन्होंने जीते-जी शपथ पत्र भी नहीं बनवाया था।” 
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(8) . बरखा शुक्ला जी
एहसास

रेवती व उनके पति ने नाश्ता ख़त्म ही किया था कि, बहू ने आकर पूछा,
“मम्मीजीआज खाने में क्या बनवा लूँ। “
“ओह! कमलाआ गई क्या?” रेवतीनेपूछा। 
“जी मम्मीजी।” बहू ने बताया। 
“बहू तुम्हारे ससुर जी कल कढ़ी खाने का बोल रहे थे, वो बनवा लोऔर सब्ज़ी जो तुम्हारा मन हो बनवा लो। “रेवती बोली। 
“तो फिर मम्मी जी गोभी की सब्ज़ी बनवा लेती हूँ, रोटीऔर चावल तो बनेंगे ही,और हाँ मम्मीजी, कमला कुछ रुपये बढ़ाने का बोल रही थी, आप कहें तो २०० रुपए बढ़ा दूँ? “बहू बोली। 
“हाँ बहू बढ़ा दो, महँगाई कितनी बढ़ गई है।" रेवती ने कहा। 
“अच्छा मम्मीजी, मैं खाने का कमला को बताती हूँ, व आपके लिए व पापाजी के लिए दूध भिजवाती हूँ। “ऐसा कहकर बहू चली गई। 
बहू के जाते हीअबतक चुप बैठे रेवती के पति बोले,
“ये बहू रोज़ खाने के लिए तुमसे क्यों पूछतीहै, बोल क्यों नहीं देती उससे, इतनेअच्छे से सब संभालें है, खाना भी सबकी पसंद का बनवा लेगी। “
“मैं उसे इसलिए मना नहीं करती, क्योंकि उसका मुझसे पूछना मुझे घर में मेरे वजूद काअहसास करा जाता है। “रेवती बोली।
“तुम्हारी बातें तो मुझे समझ में ही नहीं आती। “पति बोले। 
“हम स्त्रियों को इन छोटी-छोटी बातों में जो ख़ुशी मिलती है, उसे आप पुरुष कभी नहीं समझोगे।" रेवती मुस्कुराकर बोली। 
“तुम्हारी बातें तुम्हीं जानो।” ये कहकर पति ने अख़बार उठा लिया।
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(9) . प्रतिभा पाण्डेय
ढाई आखर प्रेम का ‘
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आकाश मार्ग से भ्रमण करते हुए नारायण ने साथ चलते नारद से पूछा “नारद ये कैसा उत्सव सा माहौल है पृथ्वी लोक में? सब एक-दूसरे को पुष्प दे रहे हैं। अपने बच्चों को प्रेममय देखकर अच्छा लगता है।” 
“प्रेम तो निश्चय ही अत्यन्त मधुर भावना है प्रभु, पर ये सब जो दिख रहा है ये हल्का फुल्का समय व्यतीत मात्र है बस।” नारद धीरे-से बोले। 
“नहीं नारद मैं नहीं मानता।” नारायण आहत हो गए थे। 
“एक क्षण ठहरिए प्रभु सब स्पष्ट हो जाएगा।” नारद मन-ही-मन कुछ बुदबुदाने लगे। 
“क्या कर रहे हो नारद?” प्रभु अधीर हो रहे थे। 
“मैंने एक मन्त्र फेर दिया है। हल्का फुल्का समय व्यतीत या स्वार्थ की भावना से प्रेम दिखाने वाले के हाथ में आते ही सारे पुष्प मुरझा जाएँगे और. ‘
“फिर पृथ्वीलोक की मेरी संतानों में कितना प्रेम बचा है इसका निर्णय हो जायगा।” प्रभु ने नारद की बात पूर्ण की। 
अचनाक ही पृथ्वीलोक का माहौल बदल गया। पार्क रेस्तराँ हर जगह जोड़े झगड़ रहे थे और मुरझाए पुष्प और गुलदस्ते एक-दूसरे पर मार रहे थे। मुरझाए पुष्पों से धरती पटने लगी थी। 
विजेता के भाव लिए नारद प्रभु से कुछ कहने ही जा रहे थे कि उनके उतरे चेहरे को देख चुप हो गए। 
“चलिए प्रभु घर लौटते हैं। देवी लक्ष्मी आपकी प्रतीक्षा में होंगी।” नारद हाथ जोड़कर बोले। 
“क्या पता।” प्रभु धीरे-से बोले। 
“वाह पृथ्वीलोक वासियों! तुमने तो नारायण के मन में भी प्रेम के प्रति शंका के बीज बो दिये ‘.” .नारद धीरे-से बुदबुदाए। 
“देखो नारद” प्रभु की वाणी का उत्साह भाँप नारद उस तरफ़ देखने लगे। एक छोटा बच्चा धीरे-धीरे अपने घर के एक अँधेरे कमरे की तरफ़ बढ़ रहा था। कमरा पुराना, उपेक्षित और सीलन भरा था। वहाँ पर पलंग में पड़ी एक बूढ़ी स्त्री के पास जाकर बच्चा ज़मीन पर बैठ गया। 
“दादी आपके लिए फूल लाया हूँ” बच्चे ने वृद्धा का हाथ पकड़ लिया। 
“कहाँ से लाया बिट्टू?” 
“मम्मी के कमरे में ऐसे ही ज़मीन पर पड़े थे। सब सूखे थे। पर अब देखो एकदम खिले हुए और सुंदर हो गए।” 
“कितने ताजे और सुंदर हैं। बिल्कुल मेरे बिट्टू जैसे।” वृद्धा ने बच्चे को चूम लिया। 
नारायण अब आश्वस्त भाव से मुस्कुराते हुए नारद को देख रहे थे.
“समझ गया प्रभु! आपकी बनायी धरती में प्रेम का अस्तित्व कभी समाप्त हो ही नहीं सकता। ‘नारद ने प्रसन्नता से खड़ताल बजा दी
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(10) . शेख़ शहज़ादउस्मानी जी
अपनों का वजूद
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पंडित शर्माजी अपने बेटे पवन और मिर्ज़ा मासाब अपनी बिटिया शाहीन को उनके मनचाहे बहुत ही मशहूर भव्य अशासकीय विश्वविद्यालय में उनके प्रवेश व पंजीकरण की औपचारिकतायें पूरी कराने पहुँचे थे। उनकी पुश्तैनी दोस्ती की अगली पीढ़ी अपनी ज़िद पर नए ज़माने की पढ़ाई, करिअर और दोस्ती की राह में क़दम बढ़ा रही थी। 
शाहीन और पवन की आँखें चौंधिया रहीं थीं; नए सपने बुन रहीं थीं मनचाहे महानगर और विश्वविद्यालय में पदार्पण से। लेकिन बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना करते हुए धार्मिक प्रवृत्ति के पंडित जी और मिर्ज़ा जी दोनों के मन में एक अजीब सी घबराहट और डर का भी वजूद था। 
“ये अपने मुल्क की यूनिवर्सिटी है या कोई विदेशी जगह, पंडित जी!” मिर्ज़ा मासाब ने आँखें फाड़ते हुए कहा। 
“अपने आज़ाद मुल्क की तरक़्क़ियाँ हैं मासाब! मुल्क में ही परदेस है! जैसी तरक़्क़ियाँ, वैसी वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान और मौज़-मस्ती! ... शिक्षा की जगह ही सुपर मार्केट है, चौपाटी है, सब कुछ है; देशी कम विदेशी ज़्यादा!” पंडित जी ने मिर्ज़ा जी को बच्चों से थोड़ा दूर ले जाते हुए कहा, “देखो, देह-दर्शना फैशनेबल लड़कियाँ और मॉडर्न गेटअप में पढ़ने वाले हिंदुस्तानी लड़के!” 
“भाई पंडित जी, मैं तो खोज रहा हूँ कि इन मॉडर्न छात्र-छात्राओं में कोई हिंदुस्तानी लिबास और तहज़ीब वाला कोई तो नौजवां दिख जाए!” 
“यहाँ सबरंग मिलेंगे दोस्त! उधर देखो, वो बुरके वाली छात्रा और उधर वो सलवार-कुर्ते वाली अपनी माँ का हाथ थामें फ़ॉर्म भरने जा रही है!” 
“वजूद तो बरकरार है मियाँ!” यह कहते हुए मिर्ज़ा मासाब का चेहरा खिल उठा। तभी उन्हें शाहीन का ख़्याल आया, जो आज जीन्स-टॉप पहने हुए पवन के साथ फ़ॉर्म भरने में व्यस्त थी। 
“मिर्ज़ा, बुरा मत मानना! आज तुम्हारी बिटिया जितनी ख़ुश और चहकती नज़र आ रही है, मैंने कभी नहीं देखा, न ही तुमने कभी देखा होगा!” 
“सही कहते हो! पवन भी आज बेइंतहां ख़ुश नज़र आ रहा है! दोनों भाई-बहन को आज आज़ाद छोड़ दो। घूम लेने दो पूरी यूनिवर्सिटी!” मिर्ज़ा जी ने बेटे का पिट्ठू बैग पीठ पर संभालते हुए कहा। 
तभी पंडित जी को याद आया कि शायद हलफ़नामों या फ़ॉर्म वगै़रह में उनके दस्तख़त की भी ज़रूरत पड़ सकती है। वे दोनों संबंधित काउंटर के पास पहुँच कर अपने-अपने दस्तख़त कर शाहीन-पवन को वहीं छोड़कर थोड़े दूर खड़े हो गए। खिड़की से उनकी गतिविधियों को देखते रहे। 
फ़ॉर्म वगै़रह जमा करने के बाद पवन शाहीन से कुछ कह रहा था। 
“देखो, कोर्स और होस्टल की पूरी फीस जमा हो गई, फॉर्मेलिटीज पूरी हो गईं! अपने पेरेंट्स का काम अब ख़त्म। अपना काम और मेहनत अब शुरू!” पवन शाहीन का हाथ पकड़कर बोला, “अपने घर, मुहल्ले और शहर में मैंने बहुत पंडिताई का माहौल झेल लिया और तुमने कठमुल्लयाई का! अपने पेरेंट्स भले दोस्त हैं, लेकिन धार्मिक बातों से हमारा दम घुटता रहा!” 
“पवन भैया, मुझे भी अजीब सी आज़ादी महसूस हो रही है! तुमने हमेशा मेरी हौसला अफ़जाई की है। अब हम यहाँ मनमाने माहौल में मनचाहे तरीक़े से जीकर अपना मनचाहा करिअर बनायेंगे, है न!” 
यह सुनकर पंडित शर्माजी और मिर्ज़ा मासाब को अपने सारे वजूद समझ में आ गए। 
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(11) . अंजलि गुप्ता जी
अस्तित्व
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मेज़ पर पड़े मोबाइल में बड़ी सुंदर धुन बज रही थी। जैसे ही बंद हुई, अलार्म घड़ी बोली, “मोबाइल जी, फिर से बजाइये न, बड़ा ही प्यारा गीत है”। मोबाइल उसी समय उसे हड़काते हुए बोला, “चलो चलो, ख़ुद तो किसी काम की हो नहीं। मुझे और भी बहुत काम होते हैं सिवा गीत बजाने के”। 
अलार्म घड़ी अपना सा मुँह लेकर रह गई। दीवार पर टंगे कैलेंडर ने मोबाइल से कहा, “हम मानते हैं भाई, तुम्हें बहुत काम होते हैं मगर यह तरीका तो ठीक नहीं बात करने का”। 
“तुम तो चुप ही रहो कैलेंडर भैया। अगर इस घड़ी में रोहन भैया की फ़ोटो ना होती और तुम उनको स्कूल से मुफ़्त में न मिले होते तो यह टेबल पर और तुम दीवार पर नज़र नहीं आते। तुम दोनों का ही क्या, मैं तो हाथ घड़ी, केलकुलेटर और आजकल तो कंप्यूटर का भी काम करने लगा हूँ। रोहन भैया का तो एक पल भी नहीं गुज़रता मेरे बिना। तुम लोग तो यूँ ही उसके कमरे में जगह घेरे हो”। 
वो सब तो हम मानते हैं मोबाइल भैया लेकिन इतना गुरुर भी ठीक नहीं। माना कि तुम समय भी बताते हो, लेकिन हाथ पर तो मैं ही जँचती हूँ। हर चीज़ का अपना महत्त्व होता ही है “, हाथ घड़ी भी चुप ना रह सकी। 
मोबाइल ने तुरंत ही फ़िल्मी अंदाज़ में इतराते हुए कहा, “मेरे पास अपना एक नंबर है, पहचान है, नाम है, तुम्हारे पास क्या है?” 
तभी एक हाथ बढ़ा और उसने मोबाइल को पीछे से खोला। बैटरी और सिम हटाये जाने से पहले रोहन की इतनी ही आवाज़ सुन पाया मोबाइल, “थैंक यू पापा मेरे लिए नया स्मार्ट फ़ोन लाने के लिए। मैं अभी इसमें सिम चेंज करता हूँ”। 
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(12) . रचना भाटिया
अस्तित्व
.
आज एन.जी.ओ.में काम ख़त्म करते करते सुबोध को बहुत देर हो गई थी। थके हुए सुबोध ने रास्तेमें ही डिनर करने के विचार से एक ढाबे पर गाड़ी रोक दी। उसे देखकर मालिक ने आवाज़ दी, ‘छोटू ..कहाँ मर गया। सामने वाली टेबल पर कपड़ा मार, और साहेब से आर्डर ले।’ 
‘जी मालिक’। प्लेटें धोना छोड़ कर दस साल का छोटू कपड़ा उठाकर टेबल की तरफ़ दौड़ पड़ा। मालिक का ग़ुस्सा वो जानता था। ‘साहेब क्या लाऊँ’? टेबल पर कपड़ा मारता हुए छोटू ने पूछा। 
‘पहले बता, कपड़े कबसे नहीं धोए? हाथ का कपड़ा ज़्यादा साफ़ है’। 
छोटू सकपका गया। ‘साहेब ग़लती हो गई। आज रात को ही धो लूँगा। 
‘छोओटूऊऊ’ नाम सुनते ही छोटू के हाथ तेज़ी से चलने लगे। 
‘साहेब क्या लाऊँ’। 
‘तुम कितने साल के हो? 
‘साहेब बात करना मना है।’ 
इतने में उसे पीछे से लात पड़ी। जितनी तेज़ी से गिरा, उतनी ही तेज़ी से खड़ा भी हो गया। 
तभी सुबोध की कड़क आवाज़ कानों में आई, “क्यों मार रहे हो”? 
“साहेब पक्का कामचोर है”। कहता हुआ मालिक अपनी सीट की ओर चल पड़ा। पर छोटू जानता था कि आज उसे रात का खाना नहीं मिलेगा और मार पड़ेगी सो अलग। 
“साहेब बताओ खाने में क्या लाऊँ?” 
“एक दाल, चार रोटी और सलाद”। छोटू ने रसोई में जा कर बताया और दूसरी टेबल पर आर्डर लेने चला गया। 
सुबोध छोटू को ध्यान से देख रहा था। लड़के, छोटू, छोरे, ओये जैसी आवाज़ आने पर वह भाग कर वहीं चला जाता। दुबला, पतला, पपड़ी जमे होंठ...ऐसा लग रहा था कि सुबह से कुछ खाया ही न हो। छोटू अब उसकी टेबल पर खाना लगा रहा था। अचानक सुबोध ने मालिक को कहा “एक दाल और चार रोटी और।” इससे पहले मालिक छोटू को कहता, 
सुबोध बोल पड़ा, “यह मेरे साथ खाना खाएगा।” छोटू को ज़बरदस्ती पास बिठा लिया, और अपनी प्लेट उसकी ओर खिसका दी, “खा लो”। छोटू के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था। एक तरफ़ मालिक का ग़ुस्सा दूसरी तरफ़ साफ़ प्लेट..जिसमें जूठन नहीं थी। 
“साहेब, जाने दो”। पर सुबोध ने कस के हाथ पकड़ लिया, “बैठे रहो”। 
“क्या नाम है तुम्हारा”? छोटू ने कोई जवाब नहीं दिया। 
“डरो मत, मालिक कुछ नहीं कहेगा, मैं बात कर लूँगा। बताओ क्या नाम है? सुबोध ने प्यार से पूछा। हालाँकि छोटू जानता था कि आज उसे बहुत मार पड़ने वाली है पर, प्लेट में रोटी का मोह छोड़ नहीं पाया। इसलिए प्लेट अपनी ओर थोड़ी और खिसका कर धीरे-से बोला” जी, जो मर्ज़ी कह लो। “
“कुछ तो नाम होगा, परिवार कहाँ है?” 
“जी, कोई नहीं है।” कहकर जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा। एक तो सुबह का भूखा और अब क्या पता आगे क्या हो। 
“आराम से खाओ, कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।” यहाँ कबसे हो “? 
मेरे साथ चलोगे? छोटू का हाथ मुँह में ही रुक गया। 
“कहाँ? मालिक नहीं जाने देगा। माई ने दो साल पहले तीन सौ रुपये उधार लिए थे। कर्ज़ा दिया नहीं, और मर गई। मैं कहीं नहीं जा सकता।” 
“अगर उसे मैं पैसे दे दूँ तो? बस जब मैं उससे बात करूँ तो मेरा हाथ मत छोड़ना। उसे मनाना मुश्किल है पर वो मान जाएगा। तुम डरना नहीं।” छोटू की आँखों में चमक आ कर चली गई। “साहेब आपका भी ढाबा है?” सुबोध मुस्कुराया और बोला नहीं, तुम्हें पढ़ने स्कूल भेजूंगा। जाओगे? “छोटू की आँखों की चमक वापस आ गई। 
“साहेब, माई ‘रमेस’ कहती थी”। 
जल्दी से पानी के गिलास से वहीं हाथ धोए, और साहेब का हाथ कस के पकड़ लिया। 
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आदाब।  बेहतरीन संकलन। इस में मेरी रचना स्थापित करने के लिए हार्दिक आभार। सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

कृपया  क्रमांक 10 पर  मेरे नाम में / शहज़ादउस्मानी /  में स्पेस देकर सही / शहज़ाद  उस्मानी / कर दीजिएगा।

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