आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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आ.समर कबीर जी सारगर्भित कथा हेतु दिली मुबारकबाद कबूल करें।
वाह ! भावनाओं को प्लास्टिक होने के भाव से बहुत खूब संदर्भित हुआ है यहाँ आपके द्वारा आदरणीय समर कबीर जी , सच ही है ये कि अब मशीनी युग में फूलों का मूल भाव अब कौन समझता है ! यहाँ रिश्ते -नाते भी प्लास्टिक से काम - चलाऊ होने लगे है .इस सार्थक कथा के लिए बधाई स्वीकार करें .
मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब ,संस्कारों और परम्पराओं को आइना दिखाती अच्छी लघु कथा के लिए ... मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
बुजुर्गों की तस्वीर पर रोज़ माला चढ़ाना भी आज एक काम बन गया है , प्लास्टिक का दादाजी तक भी पहुँच जाने वाला कटाक्ष बहुत सटीक बना है , हार्दिक बधाई इस उत्कृष्ट रचना पर आदरणीय सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय समर क़बीर साहब जी!आज की नयी पीढी के नज़रिये को बेहतरीन शब्दों में उजागर किया है आपने!इस पीढी को भावनात्मक रिश्तों से अधिक भौतिक चीज़ों में अधिक रुचि है!पुनः बधाई!
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