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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-114

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 114वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब  फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला"

2122     1122      1122        22

फाइलातुन      फइलातुन       फइलातुन      फेलुन   

(बह्र: रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ )

रदीफ़ :- निकला।
काफिया :- आरा( सितारा,नज़ारा, हारा, किनारा, इशारा आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 नवंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 दिसम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 27 दिसंबर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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फ़ायदा अपने तसव्वुर में ही सारा निकला
मैं नफ़ा जिसको समझता था ख़सारा निकला

वो रक़म करते रहे जिनमें हिसाब-ए-उल्फ़त
उन किताबों में सदा ऐब हमारा निकला

दर्द ने दिल में जगह करके मिटा दी मुश्किल
मर्ज़ दिखता था जो आख़िर को वो चारा निकला

तुझ को कितना था कहा भूल जा उसको नादां
तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला

ग़म-गुसारी की हमें जिससे भी उम्मीद जगी
वो तो हमसे भी सिवा दर्द का मारा निकला

टूटते जिस को सभी देख रहे थे हँस कर
वो हमारी ही तो क़िस्मत का सितारा निकला

आँख धोका न दे 'शाहिद' तो मुहब्बत कैसी
बर्फ़ समझा था जिसे वो तो शरारा निकला

मौलिक व अप्रकाशित

'नाहक़' साहिब की ग़ज़ल पर अपनी टिप्पणी उनकी ग़ज़ल के रिप्लाय में जा कर दें ।

जी, ठीक है।

अच्छी ग़ज़ल हुई जनाब रवि भसीन जी। सभी शेर पसंद आये। विषय राय विशेषज्ञ प्रस्तुत करेंगें।

आदरणीय अजय गुप्ता साहब, आपका बेहद शुक्रिया ज़र्रा-नवाज़ी के लिए।

आ. भाई रवि भसीन जी, अच्छी गिरह के साथ सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहब, आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ।

जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब, ओबीओ के तरही मुशायरे में आपका हार्दिक स्वागत है ।

तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'मैं नफ़ा जिसको समझता था ख़सारा निकला'

इस मिसरे में 'नफ़ा' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "नफ़'अ" जिसका वज़्न 21 होता है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'नफ़'अ में जिसको समझता था ख़सारा निकला'

'वो हमारी ही तो क़िस्मत का सितारा निकला'

इस मिसरे में 'तो' शब्द भर्ती का है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'वो हमारे ही मुक़द्दर का सितारा निकला'

बाक़ी शुभ शुभ ।

मयशयरे में अपनी सक्रियता बनाये रखें ।

मोहतरम समर कबीर साहिब, आपका बहुत शुक्रिया, ग़ज़ल पढ़ने के लिए, हौसला बढ़ाने के लिए, और ग़लतियाँ बताने और दरुस्त करने के लिए ख़ास तौर पर। आपकी दोनों इस्लाहें अनमोल हैं, उनसे आपके तजुर्बे और महारत का पता चलता है। मैं आपका बेहद आभारी हूँ।

रवि भसीन शाहिद जी एक बेहतरीन ग़ज़ल लिखने के लिए बहुत-बहुत बधाइयां बाकी समर सर की बातों पर ध्यान दें

जी बहुत शुक्रिया जनाब अमित साहब! और आपकी दूसरी बात भी बिलकुल सही है – जो बात उस्ताद शायर की इस्लाह से समझ आ सकती है वो किताबों में नहीं मिल सकती।

शाहिद जी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये अच्छी ग़ज़ल हुई है, समर सर कि बातों का संज्ञान लें 

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