आदरणीय साथियो,
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ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) :
"क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है? फटाफट दायें-बायें हाथ मार और छुट्टी ले काम से, मेरी तरह!"
"सड़कों और पार्क कीउन जगहों पर ध्यान से झाडू लगाती हूॅं बिट्टो, जहॉं तफ़री-मस्ती करने वाले लोग खाने-पीने की चीज़ें फैंक जाते हैं; कभी-कभी तो बिना झूठी या साबुत पैकेट में भी... वो भी कूड़ेदान से बाहर ही!"
"अच्छा ऐसा क्या-क्या मिल जाता है तुझे, बता तो ज़रा?"
"काजू-बादाम से लेकर अचार-चटनी तक और रोटी-पराठे से फल-सब्ज़ी तक! कुछ न कुछ, कभी कम कभी ज़्यादा!"
"तू तो ऐसे मुस्कुरा-मुस्कुरा के बता रही है, जैसे कि तू फ़िर से पेट से है?"
"हॉं, बिट्टो। तभी तो चिंता है अच्छा खाने-पीने की।"
"लेकिन यहॉं ज़मीन पर पड़ी चीज़ें नुकसान भी तो कर सकती हैं तुम्हें!"
"छॉंटा-बीनी आती है मुझे। साफ़-सफ़ाई भी। मुझे ऑंगनबाड़ी वाली दीदी ने सब तरीके समझा दिये। वो कहते हैं न हैल्थ, हाईजीन, सेनीटेसन...सब। क्या कैसे धोना और उबालना है, सब।"
"तो क्या तू उसे सब कुछ बता देती है, जो कूड़े-कचरे में से उठाती है, ऐं?"
"सपने बीनती हूॅं, उठाती हूॅं पगली; उसे क्यों बताऊॅंगी, तुझे बताया क्योंकि अच्छी सेहत के सपने तू भी देखती है, बिट्टो!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।
आदाब। बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।
काल चक्र - लघुकथा -
"आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो दिन में तीन चार बार अपनी मनपसंद टॉफ़ी लेने आते थे। अब तो दिखते ही नहीं हैं। टॉफ़ी निकाल दूँ क्या?"
"नहीं, अब हम मीठा नहीं खाते जगदीश जी।चिकित्सक मना किया है।”
जगदीश ने समय के साथ परिवर्तन महसूस किया।बचपन में रमेश बाबू उसे काका कह कर पुकारते थे जबकि उस वक्त जगदीश जी जवान थे। अब वह सत्तर पार कर गये तो वही रमेश बाबू उसे नाम से पुकार रहे हैं।हो सकता है यह बदलाव रमेश बाबू में अब जमींदार घराने के बड़े मालिक बनने के बाद आया हो।
"जगदीश जी, क्या आप सिगरेट रखते हैं?”
"हाँ रखता तो हूँ। आजकल तो आधा गाँव सिगरेट पीने लगा है। आप कौनसी पीते हैं?”
“विल्स"
"विल्स तो नहीं है। मंगवा लूंगा।”
"नहीं हमारा आदमी शहर गया है। ले आयेगा। अभी आपके पास जो भी हो निकाल दीजिये।"
जगदीश ने एक डब्बी सिगरेट की निकाल कर दे दी।रमेश बाबू एक सिगरेट मुँह में दबा कर धुआँ उड़ाते अपनी हवेली की ओर चले जा रहे थे।
समय के साथ रमेश बाबू कितना बदल गये थे।एक समय था जब वे गाँव के सबसे होनहार युवक थे। हर क्षेत्र में आगे रहते थे।खेल कूद से लेकर शिक्षा तक ।
इतनी सारी खूबियों के मालिक होने के कारण एक सहपाठी महिला रमेश बाबू को दिल दे बैठी।उसका परिवार फौजी पृष्ठ भूमि से था। अतः वह लड़की भी रमेश बाबू को एक आर्मी अफसर के रूप में अपना हमसफर बनाना चाहती थी।
प्रेमिका के लिये उनकी भी चाहत थी कि आर्मी अफ़सर बनें।चुने भी जा चुके थे। लेकिन इकलौती संतान होने के कारण पिता ने सेना में नहीं जाने दिया।
पिता की तरह रमेश बाबू भी जिद्दी निकले।
पिता की बात मान ली लेकिन एक शर्त अपनी भी थोप दी। जिंदगी भर अविवाहित रहने की शर्त ।
बाप बेटे की जिद ने जमींदार परिवार को सदैव के लिये लावारिस कर दिया।
मौलिक एवं अप्रकाशित
नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक और सेना की नौकरी के अधूरे ख़्वाब से अविवाहित रहने तक की विसंगतियों वाली बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी। अंतिम पंक्ति को प्रतिस्थापित किया जा सकता है किसी बेहतर पंचपंक्ति या पंच-संवाद से। जो विवरण देने वाले वाक्य बीच-बीच में या अंत में हैं उनके भावों को संवादों या कथनोपकथन में बयॉं किया जा सकता है मेरे विचार से।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती हैं।आपकी हिदायतों पर गौर करूंगा। पुनः आभार।
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