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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 69 में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम आत्मीय स्वजन 

69वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|

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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"


अलविदा बोल किया मुझसे किनारा उसने।
ख़त्म धड़कन से किया रिश्ता हमारा उसने।।

सिर्फ इतना ही कहा, भूलना होगा मुझको।
मुड़के देखा भी नहीं मुझको दुबारा उसनें।।

मैंने देखे थे सपन ढ़ेर से जिसकी ख़ातिर।
उन्हीं ख़ाबों की चिता खुद ही संवारा उसने।।

है जो पूनम की भी रातों में घना अँधेरा।
कर दिया चाँद को टूटा हुआ तारा उसने।।

था यहाँ आँख में खिल जाने का अरमाँ लेकिन।
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने।।

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Nilesh Shevgaonkar

गौर से जब मेरी आँखों को निहारा उस ने
कर लिया ख़ुश्क समुन्दर का नज़ारा उस ने.
.
शाइरी को मेरी कुछ ऐसे निखारा उस ने,
जब हुआ मुझ से जुदा दर्द उभारा उस ने.
.
थोडा ईमान दिया और हवस दी थोड़ी,
इम्तिहाँ रोज़ लिया ऐसे, हमारा उस ने,
.
वक़्त-ए-रुख़सत मुझे जीने की क़सम दे डाली,
कोई छोड़ा न मेरे वास्ते चारा उस ने.
.
रोटियाँ कच्ची सिकीं और नमक भी ग़ायब
किस का गुस्सा था कहीं और उतारा उस ने.
.
दौर-ए-आसाँ में सभी, साथ निभा लेते हैं,
दौर-ए-मुश्किल भी मेरे साथ गुज़ारा उस ने.
.
ये कलंदर सी तबीयत भी मेहर-ए-नाकामी,
शख्सियत में थे कई ऐब, सँवारा,,, उस ने.
.
वो मुसाफ़िर था मेरी आँखों की कश्ती वाला,
जाने किस रोज़ किया मुझ से किनारा उस ने.
.
मैं कि गुन्गश्ता किनारों में सिमटता दरिया,
“मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उस ने”.
.
फ़ितरत-ए-नूर भला कौन समझ पाया है,
अपने जीते हुए हर दाँव को हारा उस ने.
.

गीत ग़ज़लों की है पतवार सहारा वर्ना।
बीच मझधार में छोड़ा था शिकारा उसने।।

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Samar kabeer


घूमते चाक पे यूँ नक़्श उभारा उसने
दे दिया हाथों से मिट्टी को सहारा उसने

कर दिया आँख से हल्का सा इशारा उसने
मुझ को ख़ंजर से नहीं प्यार से मारा उसने

पोंछ देता मेरे बहते हुए आँसू आकर
इतनी ज़हमत भी कहाँ की है गवारा उसने

दूसरों के लिये होता है फ़लक पर लेकिन
चाँद मेरे लिये धरती पे उतारा उसने

इस को कहते हैं मुहब्बत,ये वफ़ा है देखो
अपने सर ले लिया इल्ज़ाम हमारा उसने

वो भी इस बात से वाक़िफ़ है बख़ूबी यारो
मैं चला आऊँगा जिस वक़्त पुकारा उसने

पास आकर कभी मरहम तो लगाने से रहा
दूर से ही मेरे ज़ख़्मों को निहारा उसने

उस के अंजाम पे हँसता है ज़माना देखो
मोड़ना चाहा था तक़दीर का धारा उसने

'अज़्म' साहिब ही बता सकते हैं कैसे आख़िर
"मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने"

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शिज्जु "शकूर"


दर्द अपना मेरे सीने में उतारा उसने
इतनी शिद्दत से मुझे रुक के पुकारा उसने

तर-ब-तर शाम ग़ुज़रती रही तन्हा, मानो
“मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने”

एकटक देखता ही रह गया उसका चेहरा
इस मुहब्बत से लिया नाम तुम्हारा उसने

मेरी बेरंग सी लगती हुई इस ज़िन्दगी को
कैनवस पर कई रंगों से उभारा उसने

नहीं मालूम उसे देखना क्या था मुझमें
मेरी तस्वीर को ता-देर निहारा उसने

ग़ालिबन बात में ही कोई कमी रह गई थी
शे’र हालाँकि कई बार सुधारा उसने

दिल की गहराई तलक तीर उतरता ही गया
लफ़्ज़ यूँ मेरी तरफ़ फेंक के मारा उसने

मुझको वापस न पलटकर कभी देखा होता
कर लिया होता अगर मुझसे किनारा उसने

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गिरिराज भंडारी

अलविदा कह के किया,यूँ न किनारा उसने
जाते जाते भी कई बार पुकारा उसने

हमसफर बन के रहा दिन में उजालों की तरह
रहबरी की है कभी हो के सितारा उसने

हाँ दिया बुझ भी गया और निशाँ मिट गया, पर
रौशनी दे के जहाँ कुछ तो निखारा उसने

क्यों उसे जंग शनावर का कहूँ तूफाँ से
गिर के घुटनों में, था साहिल को पुकारा उसने

अब्र का सिर्फ करम आब नहीं था यारो
आसमाँ पर भी धनक खूब उभारा उसने

ता कि फैले न कहीं आग मेरे भीतर की
"मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने"

सिर्फ अंजाम न देखें कि कहाँ पहुँचा वो
देखना ये भी, किया कैसे गुज़ारा उसने

एक पत्ता भी खड़कता नहीं हैं ख़ुद से कभी
कुछ हुआ है तो किया तय है इशारा उसने

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मिथिलेश वामनकर

पाँव दहलीज पे रक्खे न दुबारा उसने

कर लिया खूब मरासिम से किनारा उसने

फिर किसी बुत की परस्तिश में लगा है नादां
अपने हाथों से किया खुद ही ख़सारा उसने

उसकी आँखों में थी तासीर गज़ब की यारो
इक नज़र देख लिया और सँवारा उसने

बंद आँखों से किया जिस पे भरोसा यारो
कर लिया वक़्ते-जरूरत पे किनारा उसने

पहले खामोश रहा चाके-जिगर होने तक
फिर तो बच्चे की तरह खूब दुलारा उसने

जाते-जाते भी मेरी पोछ गया नम आँखें
खूब छीना मेरे जीने का सहारा उसने

एक जालिम ने यूं तिरछी-सी नज़र से देखा
"मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने"

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laxman dhami

यूँ तो सैलाब से सबको ही उबारा उसने
डूबते वक्त मगर किस को पुकारा उसने।1।

नाव मझधार में लेकिन थी निगाहें मुझ पर
जैसे देखा हो कोई मुझमें किनारा उसने।2।

लग रहा ख्वाब हकीकत में बदलता उसको
टूटता देख लिया आज क्या तारा उसने।3।

प्यार की झील बनाई थी जतन से लेकिन
रख दिया दर्द का एक और शिकारा उसने।4।

जीत के दिल को मेरे ये तो न सोचा होगा
जंग में प्यार की खुद को भी तो हारा उसने।5।

उसमें शायद कोई नदिया ही उफनती थी जो
'मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने'।6।

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Tasdiq Ahmed Khan

आसरा छीन लिया दे के सहारा उसने |
कर लिया मेरी मुहब्बत से किनारा उसने |

आज नफ़रत से नहीं प्यार से मारा उसने |
कर के रुख़सत मुझे पीछे से पुकारा उसने |

कम है क्या यह मुझे दीवानों में शामिल कर के
बज़्म में ख़ूब रखा मान हमारा उसने |

भीक में भी न अता प्यार सितमगर ने किया
लाख भीगे हुए दामन को पसारा उसने |

ना ख़ुदा क्या है मुझे तब यह समझ में आया
जब भंवर में मेरी कश्ती को उभारा उसने |

इल्तजा सिर्फ ये थी तर्के वफ़ा मत करना
हाय क़िस्मत न किया यह भी गवारा उसने |

मंज़िले इश्क़ युं ही तो न हुई है हासिल
मुझको बख़्शा है हर इक मोड़ पे यारा उसने |

लोग यूँ ही नहीं कहते हैं सुख़नवर मुझको
सोच और मेरे ख़यालों को निखारा उसने |

ख़ुद ब ख़ुद प्यार की कश्ती तो नहीं है डूबी
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने |

प्यार का वादा तो कितनों से किया है लेकिन
दिल किसी शख़्स के ऊपर नहीं वारा उसने|

हो गया तब से ही दीवाना क़सम मालिक की
जब से तस्दीक़ सुना गीत तुम्हारा उसने |
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Ahmad Hasan

अक्स मेरा ही मेरे घर में उभारा उसने |
बिखरा सामान सलीक़े से संवारा उसने |

दनदनाता हुआ आया है वज़ीरे दौलत
दाब रक्खा है ग़रीबी का पिटारा उसने |

है तो माज़ूर मगर समझो न मजबूर उसे
वक़्त पर मोड़ा है दरिया का भी धारा उसने |

जिसने इन आँखों को अश्कों की रवानी दी है
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने |

उसकी करतूत सबब बन गयी बर्बादी की
पांव चादर से ज़ियादा जो पसारा उसने |

मार डाले था सभों को वो सुलगता सावन
साल हा साल बिना जल जो गुज़ारा उसने |

तीर पर तीर अँधेरे में चलाये हम ने
सैद तो हम ने किया चुन लिया सारा उसने |

मैं ही क्या बज़्म में हैरान सभी थे अहमद
जब अचानक ही मुझे हंस के पुकारा उसने |

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rajesh kumari

डूबते वक़्त दिया जिसको सहारा उसने
कर लिया पार उतरते ही किनारा उसने

फालतू आज समझकर जो मुझे काट रहा
मेरी ही छाँव में बचपन था गुजारा उसने

देख बदले हुए हालात हवाओं के रुख
मौज में छोड़ दिया जिस्म-ए-शिकारा उसने

बात होने लगी बिन बात हमारी अक्सर
बज्म में नाम लिया जबसे हमारा उसने

झुक गया खुद ही शज़र देख लपकती आरी
खूब आसान किया काम तुम्हारा उसने

जात औ धर्म की माचिस से लगा चिंगारी
हाय आँखों से पिया खून-ए-नजारा उसने

कुछ दिनों का ये जजीरा न रुका कोई यहाँ
जाना पड़ता है तभी जब भी पुकारा उसने

देश के वीर जवानों को सुनाकर गाली
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने

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kanta roy

गर्दिशों में मेरी क़िसमत को संवारा उसने
मुद्दतों बाद मुझे आज पुकारा उसने

बेखबर है मेरा दिल उसके सभी जलवों से
शायद देखा ही नहीं मेरा सितारा उसने

बहते अश्कों से यही लगता है अब तो मुझको
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने

मैं तो पत्थर की चटानों से घिरी रहती थी
फिर भी इक ख़्वाब सजाया है हमारा उसने

मेरे क़दमों पे नज़र रखता है जाने क्यूँ कर
किस इबादत में ये दिन से रात गुजारा उसने

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दिनेश कुमार


कर लिया इश्क़ की राहों से किनारा उसने
हश्र देखा जो मुहब्बत में हमारा उसने

दिल में रखता था वो दरया से गुहर की उम्मीद
फिर भी साहिल से किया क्यों न किनारा उसने

उसकी खुशबू से महकती हैं ये सांसें अब तक
एक लम्हा था मेरे साथ गुज़ारा उसने

हुस्न और इश्क़ पे यूँ झूटी अना हावी थी
उसको मैंने, न कभी मुझ को पुकारा उसने

उसकी यादों का है एहसान हमारे दिल पर
डूबते को दिया तिनके का सहारा उसने

खुल गया उस पे हयात और क़ज़ा का उक़्दा
पैरहन जिस्म का जिस लम्हा उतारा उसने

आज भी ज़ह्न में चुभता है उन आँखों का सवाल
क्यों पलट कर मुझे देखा था दोबारा उसने

दास्ताँ उस से मुहब्बत की सुनी थी, या 'दिनेश'
" मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने "

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जयनित कुमार मेहता

हां! अचानक से किया मुझसे किनारा उसने
क्योंकि समझा मुझे हालात का मारा उसने

नमी पलकों की कभी सूख न पाई, जबसे
"मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने"

बेख़याली में बस इक बार नज़र टकराई
और कब्ज़े में लिया दिल ये हमारा उसने

जब कभी सोचने लगता हूँ, उलझ जाता हूँ
क्यों रचा, कैसे रचा खेल ये सारा उसने

झुक गए सर उसी मजलूम के सजदे में कई
बेसहारों को दिया जब भी सहारा उसने

एक उम्मीद से पाला था जिसे, शह्र गया
मुड़ के देखा न फिर इस ओर दुबारा उसने

लाज कल द्रौपदी की लूट ली दुर्योधन ने
कृष्ण आए न, कई बार पुकारा उसने

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Kewal Prasad


प्यार के नाम पर उस पार उतारा उसने.
मेरी दुनियां मेरी तकदीर सॅवारा उसने.१

दीन दुखियों की खुदी दर्द बयां करती है,
प्यार के तर्ज़ पर संसार पसारा उसने.२

आदमी चाहता संसार में आना-जाना,
आग- दर्या में दिया शांत किनारा उसने३.

उसकी मर्ज़ी के बिना धूल नहीं उड़ती जब,
आंधियां रोक के सैलाब सुधारा उसने.४

कोई शैतान कयामत की कहानी लिख कर,
अम्न आबाद रहे दर्द उभारा उसने,५

कर्म पत्थर के हुये धर्म है पानी-पानी,
आदमी गैर नहीं अपना विचारा उसने.६

बोल कर झूठ सदा सत्य को परखा जब भी,
क्रूरता-मौन को अपराध पुकारा उसने.७

कौम गंगा तो मेरा फर्ज़ समंदर जैसा
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने.८

गाय माता है मेरी दूध पिलाकर 'सत्यम'
मुझको हर खून-खराबे में निहारा उसने.९

___________________________________________________________________________________

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव


कर लिया बेशक इस घर में गुजारा उसने
स्वर्ग या नर्क लिया देख नजारा उसने

आँख से पेश किया शोख इशारा उसने
आह फिर मार दिया तेज दुधारा उसन

लग गया आज मुझे हाय किसी का टोना
सोच कर बात यही, नज्र उतारा उसने

जब कभी आँख दिखायी किसी ने भारत को
वाह ! प्रतिकार किया पाक करारा उसने

धड़कने थम गयी हैं सांस भी हैरां -हक्का
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने

नेह के फूल सरे राह बिछाये लाखों
कब किया प्यार की दरकार गवारा उसने

आज फिर मासूम जवानी का भरोसा टूटा
पेट में पाल लिया पाप कुंवारा उसने

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Saurabh Pandey

दे दिया हाथ में दहका हुआ पारा उसने
औ’ मुहब्बत को दिया अर्थ दुबारा उसने

पीठ पीछे जो मुझे गालियाँ देता था वही
क्या हुआ नाम लिया और पुकारा उसने ?

जो नदी.. लाँघ के पर्बत भी.. बहा करती थी
वक़्त ये देखिये.. शर्तों पे गुज़ारा उसने

देखिये लोग जुटेंगे तो करेंगे बातें..
इस तरह भीड़ के होने को नकारा उसने

संत के बोल थे, ’क्या लाभ जो जोड़ी दौलत’ ?
फिर किया संत की दौलत का नज़ारा उसने !

रंग में भंग न हो जाय कहीं, कह-कह कर
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने

नाम से एक कन्हैया था महाभारत में..
सोच कर एक जमूरे को उतारा उसने !

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नादिर ख़ान

मुद्दतों बाद मुझे दिल से पुकारा उसने
धीरे धीरे ही सही खुद में उतारा उसने

मुझको हर मोड़ पे हर रोज़ सँवारा उसने
ख़ाक था मै तो, किया मुझको सितारा उसने

बुझ रही आग को इस दिल में जलाने के लिए
दर्द का घूँट मेरे दिल में उतारा उसने

वो तो हर हाल में हालात से लड़ सकता था
जाने क्या बात हुयी, खुद को ही हारा उसने

ये न मालूम था, वो इतना बादल जाएगा
बस पलटते ही मेरी पीठ पे मारा उसने

दफ्न कर बैठे थे जिस आग को बरसों पहले
फिर से सुलगा दी मुझे करके इशारा उसने

आग तो आग है इन्सां को जला देती है
बदले की आग में, बस खुद को ही मारा उसने

खेल में दाँव तो उसके थे, हर इक बार मगर
बारहा मुझको अखाड़े में उतारा उसने

उसकी आवाज़ पे लब्बैक कहा है हरदम
आज़माने के लिए जब भी पुकारा उसने

ज़ख्म ही ज़ख्म दिये हमने ज़मीं को लेकिन
अपनी बाहों का दिया सबको सहारा उसने

उसकी बातों का असर ऐसा हुआ है जैसे
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने

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मोहन बेगोवाल

जब बहाने से मेरा नाम पुकारा उसने
तब दिखाया कोई दिल खास नज़ारा उसने

वो दिखाता था अभी दूर है मंजिल तेरी
चल पड़ा जब नहीं पूछा था दुबारा उसने


जब रहे साथ तेरे हम को बताया होता
जीतने के लिए कुछ राह सवारा उसने

कौन अपना है पराया कोई कब तक कहते
दौर बदला है मगर साथ गुजारा उसने

जो जमाने के लिए जीत गया लड़ता खुद
पर घराने से पाया दर्द पुराना उसने

___________________________________________________________________________________

अजीत शर्मा 'आकाश'


दूर मुझसे जो कभी देखा किनारा उसने ।
नाख़ुदा बन के दिया मुझको सहारा उसने ।

फूल ही फूल लगे खिलने चमन में उसके
जो बहारों को किया हँस के इशारा उसने ।

आइना बन के रहा साथ हमेशा मेरे
मुझको इस तरह से हर रोज़ सँवारा उसने ।

आग का दरिया मुक़ाबिल जो हुआ राहों में
कर लिया पल में मुहब्बत से किनारा उसने ।

मुझसे इक बार ख़फ़ा हो के गया वो ऐसे
फिर मुझे मुड़ के नहीं देखा दुबारा उसने ।

डूबता हूँ न उभरता हूँ अजब मुश्किल है
[[मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने]]

___________________________________________________________________________________

सूबे सिंह सुजान


भूखा रहकर भी बहुत वक्त गुजारा उसने
अपने बच्चों की तरह खेत सँवारा उसने ।

वो न गीता और न कुरआन समझता है मगर,
किसलिये कर लिया सुख दुख से किनारा उसने ।

जब चली ठंडी हवा,एक कदम आगे बढ़,
अंखडियों में कोई अहसास उभारा उसने ।

मुझसे मिलने के लिए एक दफा आया था,
और मुड़के मुझे देखा न दुबारा उसने ।

आज तो झूठी महब्बत की कहानी कह कर,
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने ।

__________________________________________________________________________________

सीमा शर्मा मेरठी

दिल के वीरान से सहरा को संवारा उसने
मुझमे चाहत के समन्दर को उतारा उसने।

हिज़्र की धूप ने सब मेरा समन्दर सोखा
खुश्क़ बालू का किया मुझ को किनारा उसने।

एक चिड़िया थी वफाओं की फुदकती मुझमे
बेवफाई के किसी तीर से मारा उसने।

इश्क़ वो आग जहाँ तप के बनी मैं कुंदन
रफ़्ता रफ़्ता ही निखारा है, संवारा उसने

अश्क़ ए दरिया पे की यूँ गम की मुसलसल बारिश
"मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने।"

वक्त के एक इशारे से है मुमकिन सबकुछ
एक जर्रे को बनाया है सितारा उसने।

मैं समझती थी कि ये ज़ख्म है भर जाएगा
दर्द पर मेरी रगे जां में उतारा उसने।

सामने पाया है सीमा को हक़ीक़त की तरह
जब भी भूले से तसव्वुर में पुकारा उसने।

__________________________________________________________________________________

Ravi Shukla


ग़मे हस्ती में मुझे दे के सहारा उसने,
मेरे जज़्बात की गर्दिश से उबारा उसने

लौट कर जब नही आया तो मेरे रस्ते को ,
अपनी पलकों से कई रोज बुहारा उसने।

उसके अहसान का मैं बोझ उतारूं तो कहाँ,
मेरी खुशियों से किया खुद ही किनारा उसने।

ज़ख्म दिखता तो नही है न दिखे दर्द कोई,
वार अल्फ़ाज़ का गहरा था जो मारा उसने।

कैसे उस शख्स की हर बात भुला दूं यारो ,
मुझ को हर हाल में रक्खा है गवारा उसने।

मुझ को उस राह से चुपचाप गुज़र जाना था,
जाने क्या देख किया मुझ को इशारा उसने।

लोग माइल ब करम लौट के आये वापस,
कोई अहसां न लिया आज हमारा उसने ।

फूंक के दूर से जो देख रहा था मंज़र ,
आंच पहुंची जो घरों तक तो पुकारा उसने।

डूब जाते है मेरी आँखों में कितने मंज़र,
मेरे अंदर कोई सैलाब उतारा उसने।

_________________________________________________________________________________

मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

बहुत दिनों से इस संकलन का इंतज़ार था । बहुत बहुत बधाई आप सभी आदरजनों को ।

आपनी अति व्यस्तता के बावज़ूद आपका संकग्न रहना आश्वस्त रखता है, राणा भाई. चिह्नित मिसरों वाले संकलन केलिए हार्दिक धन्यवाद. बन सके तो सद्यः समाप्त हुए तरही मुशायरे की ग़ज़लों का संकलन भी प्रस्तुत कर दें. 

शुभ-शुभ

राणा भाई, एक ग़ुज़ारिश है. मेरी प्रस्तुति के मतले के सानी में औ’ को हटा कर यों कर दें. इस तरह वो मिसरा हो जायेगा - 

यों मुहब्बत को दिया अर्थ दुबारा उसने

शुभ-शुभ

वाह सभी ग़ज़लें पढ़ी. बहुत सुन्दर आयोजन !

 आदरनीय राणा भाई ,मैनें चिह्नित मिसरों  को दरुस्त करने का प्रयास किया है,

    

जब बहाने से मेरा नाम पुकारा उसने
तब दिखाया कोई दिल खास नज़ारा उसने

वो दिखाता था अभी दूर है मंजिल तेरी
चल पड़ा जब नहीं पूछा था दुबारा उसने

जब रहे साथ तेरे हम को बताया होता
जीतने के तेरे  कुछ राह संवारा उसने

कौन अपना है पराया कोई कहता है कब  
दौर बदला है मगर साथ गुजारा उसने

जो जमाने के लिए जीत गया लड़ता खुद 
दर्द का घर में उतारा ये शिकारा उसने 

कुर्पा इन बारे राए देना , मेहरबानी होगी 

मोहतरम जनाब राणा  साहिब ,ओ बी ओ लाइव तर ही मुशा एरा    अंक -६९ के  संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं -----शेर नंबर ३
 हरे  रंग का है  ----महरबानी करके उसे इस तरह संशोधित कर दीजिये ---
   
कम है क्या यह हमें दीवानों में शामिल करके ।
बज़्म में खूब रखा मान हमारा उसने ।
                                               
  
                                   मोहतरम जनाब राणा  साहिब ,ओ बी ओ लाइव तर ही मुशा एरा    अंक -६९ के  संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं -----शेर नंबर ३
 हरे  रंग का है  ----महरबानी करके उसे इस तरह संशोधित कर दीजिये ---
   
कम है क्या यह हमें दीवानों में शामिल करके ।
बज़्म में खूब रखा मान हमारा उसने ।
                                               
  
                                   

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अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"मुहतरमा ऋचा यादव जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आ० अमित जी…"
8 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आदरणीय…"
9 hours ago

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