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"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक - 48 की समस्त संकलित रचनाएँ

१. श्री गणेश जी बाग़ी
अतुकांत कविता : कर्तव्य
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मेला मेला है..
मेले को चाहिए भीड़
भीड़ को चाहिए आदमी
और तुम तो आम आदमी हो !
बनते हो भीड़ का हिस्सा
व्यवस्था सुरक्षा प्रशासन
आह अफवाह और लाचारी के मध्य
रौंदे जाते हो.
मरती हैं तुम्हारी औरतें
मरते हैं तुम्हारे बच्चे
शुरू होता है फिर
आरोपण
प्रत्यारोपण
बयानबाजी
मुआवजा
स्थानान्तरण
निलंबन
और
उच्च स्तरीय जाँचों का खेल

चकमक करती
लाल, पीली, नीली बत्तियाँ,
दौड़ती हुई बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ,
क्या देखते हो भौचक होकर ?
सभी कर्तव्य पर हैं.. !
और तुम हो आदमी
आदमी भी नहीं
महज़ आम आदमी
जो बनते हैं भीड़ का हिस्सा
अपना कर्तव्य समझकर !
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२. श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

प्यार सभी को दिल से बांटे , बड़ों को शीष नवायें।
मिल के रहें परिवार में हम, अच्छे संस्कार बनायें॥

हम रहते हैं जिस समाज में, सब का है कर्त्तव्य यही।
सुख- दुख में हम साथ रहें, रिश्तों को सदा निभायें॥

गौ माँ हर दिन कटती है हम, अंध बधिर बन जाते हैं।
आंदोलन पूरा देश करे, जन- जन में जागृति लायें॥

हिंदी को सम्मान मिले हम, सब की ज़िम्मेदारी है।
हिंदी राष्ट्र की भाषा बने, ऐसा अभियान चलायें॥

जन्म लिए जिस धरती पर वो, भारत अपनी माता है।
सेवा भाव तन- मन में जगे, हम स्वार्थहीन कहलायें॥

बचपन, यौवन और बुढ़ापा , सदा परीक्षा देनी है।
पुरुषार्थ करें हम जीवन भर, हर बार सफलता पायें॥

देवों को भी दुर्लभ है वो , मानव शरीर पाये हम।
कुछ रहे ना रहे, नाम रहे, हम काम ऐसा कर जायें॥
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३. श्री विजय प्रकाश शर्मा

अमृत सारा देव ले गए
शेष सिर्फ हलाहल है.
हर घर , हर परिवार में,
हर पंचायत, हर सरकार में
हर स्त्री , हर पुरुष में
हर कामगार, हर बेकार में
मकान पर, दूकान पर
खेत पर, खलिहान पर
मस्जिद पर, मंदिर पर
गुरुद्वारा पर, चर्च पर
श्मशान पर, कब्रिस्तान पर
कर्तव्यों की इति हो गई
अधिकारों का कोलाहल है.

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४. डा० विजय शंकर

प्रथम प्रस्तुति

वह श्रमजीवी है
श्रम करता है ,अपने बल पर ,
इतना कि घर परिवार चला सके ,
बाकी मौज करता है ,
आराम करता है , किसी की
गुलामी नहीं करता है ।
अपना काम करता है ,
कर्तव्य पालन करता है ॥

वह उच्च पदस्थ है ,
स्वयं को अपने ऊपरवालों की
असीम कृपा का पात्र बताता है ।
उनकीं सेवा में निरंतर तत्पर ,
हर खिदमत को तैयार रहता है ,
जी हुजूरी अच्छी बजाता है ।
कृपा बनी रहे , इसलिए उनकें
सही-गलत हर काम करता है ,
स्वयं को स्वामी - भक्त ,
कर्तव्य परायण बताता है ,
स्वयं की दृष्टि में वह सिर्फ
कर्तव्य का पालन करता है ॥

वह व्यवस्था का नायक है ,
व्यवस्था साध नहीं पाता है
अर्थ साधता रहता है ।
अर्थ हेतु कुछ भी करता है ,
पैसा फेंकते हैं लोग ,
वह तमाशा दिखाता है ,
उनकें लिए नाचता है ,
गाता है , बाजा बजाता है ।
ऐश का जीवन बिताता है ।
स्वयं अपने को सेवा में समर्पित
और अपने जीवन को सार्थक बताता है,
दासत्व का विरोध करता है ,
स्वयं को आज़ाद सेवक ,
कर्तव्य पालक बताता है ||

और पराभवी अंत में ,
वह रोज़ प्रातः अपने बच्चों को
प्यार से जगाता है , बेटे जाओ ,
जल्दी काम पर जाओ ,
नहीं तो सब कूड़ा बिन जाएगा ,
तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा , क्या खाओगे ॥
और बच्चे पोलिथिन बैग लेकर,
निकल पड़ते हैं कूड़ा बीनने ,
बिना मुँह धोये, जल्दी जल्दी ,
कर्तव्यपरायणों की तरह ||

द्वितीय प्रस्तुति

उनका कर्तव्य भी
अधिकार है उनका ,
मौज है मन की ,
स्वेच्छाचारिता है उनकी .
तुम्हारे अधिकार भी
कर्तव्य हैं तुम्हारे जो
तुम्हें पूरे करने ही होते हैं ||

* * * * * * * * * * * * * * * *

अतः
कर्त्तव्य हो
कर्त्तव्य का बोध हो
कर्त्तव्य से प्रेम हो
प्रेम हो तो उसका
निर्वहन कर्त्तव्य हो ॥
कर्त्तव्य का भान हो
कर्त्तव्य में मान हो
कर्त्तव्य का सम्मान हो
कर्त्तव्य में शान हो ,
निष्ठा हो , ईमान हो
जो पालन करे कर्त्तव्य
सच में , वह महान हो ॥

कर्म कर , कर्मार्थ कर
पुरुषार्थ को स्वीकार कर
कर्म पर अधिकार तेरा
कर्तव्य पर अधिकार कर
क्यों रहो रहमों करम पर
किसी के, खुद कर्म कर
कर्म पर उपकार कर
जीवन को साकार कर
गर्व कर , धर्म पर गर्व कर ,
कर्म पर गर्व कर
कर्त्तव्य कर पर गर्व कर
कर्त्तव्य का मान कर, सम्मान कर
सम्मान पर अभिमान कर ||
   
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५.  श्री चौथमल जैन

कर्तव्य प्रथम इस जीवन का है ,
मात - पिता की सेवा करना ।
आशीर्वाद उन्हीं का लेकर ,
जीवन पथ पर आगे बढ़ना ।।

कर्तव्य दूसरा जगती पर है ,
मानवता की रक्षा करना ।
दया - धर्म का भाव सदा ही ,
अपनों से छोटों पर रखना ।।

कर्तव्य तीसरा यही हमारा ,
देश - धर्म के लिए ही जीना ।
बलिदानों के पथ पर बढ़कर ,
मात्र -भूमि की सेवा करना ।।

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६. श्रीमती पूनम माटिया

जन्म लेकर
जब धरा पे हुआ आगमन
नहीं पता था
कौन ध्येय किया सुरक्षित
प्रभु इस काया को
माँ ने निभाया अपना
पिता भी निभाते रहे अपना
छोटा जान किसी ने नहीं
मुझे समझाया
बच्चे !
काहे तू इस जगत में आया
खुद की तृष्णा जब जगी
तभी अगन कुछ करने की लगी |
माँ के पैर जब छुए
पिता की अंगुली छोड़ जब चला
तब ही अंतर्मन का पट खुला |
निभाते रहे जो  सब अब तक
वही निभाने हैं मुझे
कर्तव्य पथ सुनिश्चित करके  
कुछ कदम बढ़ाने हैं मुझे
कुछ क़र्ज़ चुकाने हैं
कुछ फ़र्ज़ निभाने है
बोझ नहीं बनना धरा पे
मृत्यु से पहले
कुछ नवल पौध
खिलाने हैं मुझे
आने वाली नस्ल के लिए
कुछ आदर्श बनाने हैं
कुछ कर्तव्य निभाने हैं|

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७. श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

कर्तव्यों की बात करे क्या बिका आँख का पानी
सबके दिलों में देखो जैसे अधुनातन रंग चढ़ा है |
छल की मीठी मार लिए सब अर्थ हुए बेमानी
मर्यादा की चिता जलाएं अपने हित लिए अड़े है |

कर्तव्यों की बात करे क्या बहकी नई जवानी
मातृ सदन के आगे देखो बूढ़े लाचार खड़े है |
स्नेह प्यार के नेह में देखों समग्र सूखता पानी
महँगाई की मार के आगे बच्चे निवल बढे है |

कर्तव्यों की बात करे क्या जिनमे रहा न पानी
पढ़े लिखे युवकों के भी हर हाट में दाम बढे है |
घर घर में आशा के द्वारे बूढी हो रही जवानी
संकृति की रक्षा हो कैसे, प्रश्न ये अहम खड़े है |

कर्तव्यों की बात करों अब भूमिका अहम निभानी
कर्तव्य बोध लिए कुछ देखो आग्रही युवक अड़े है |
आदर भाव भरे अब दिल में सुनाकर उन्हें कहानी
संस्कार आ जाए बच्चों में ग्रंथों में आदर्श जड़े है |

कर्तव्यों का पाठ पढाए आओ घर घर पँहुचे पानी
आओ अब निर्धन के घर द्वारे जाकर दीप जलाए |
उनके दिल में करे रौशनी मौन है जिनकी वाणी
कर्तव्य निभाने हम आशा की आओ जोत जलाए |

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८.  श्री गिरिराज भंडारी

मैं समाज हूँ
तुम सभी से मिला कर ही बना हूँ
तुम सब का सम्मिलित स्वरुप
वैसा ही हूँ जैसे तुम सब
तुम से अलग तो हो भी नहीं सकता , चाहूँ तो भी
तुम्हारा ही प्रतिबिंम्ब हूँ

जब कभी तुम बीमार पड़ते हो
बताते हो वैद्य को अपनी बीमारियाँ ,
दिखाते हो रोग ग्रस्त अंग , और चाहते हो इलाज
स्वस्थ अंगों का बखान तो नहीं करते न ?

मैं भी वही कर रहा हूँ
मैं ( समाज ) आज दिखाने आया हूँ मेरा लकवा गस्त अंग
वो अंग जो आपके कर्तव्यों से बनता है
आज किसी के भी खून की रवानी मेरे उन अंगों की ओर नहीं है
मेरा अर्धांग लकवा ग्रस्त है

क्यों कि सारे ही खून की रवानी
मेरे बाकी के आधे अंग जो आपके अधिकारों से बनाता है
की ओर स्वत: मुड़ जा रही है
वो पहले भी स्वस्थ था , आज तो आसमान में उड़ना चाहता है
बीमार कर्तव्य से अलग हो के

मुझे बचाइए , लकवा ग्रस्त अंगों में खून की रवानी दीजिये
और अधिकारी अंगों को समझाइये, एक सच
कि , मैं बीमार रहा तो , वो भी चल नहीं पायेंगे
क्योंकि अधिकार और कर्तव्य दो नहीं हैं
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
मुझे अनदेखा कर वो भी जी नही पायेंगे |

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९. डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

भांति भांति के लोग हैं, भिन्न भिन्न मंतव्य I
निर्धारित कैसे करूं, मैं अपना कर्तव्य I

कोई कहता सकल, जग ईश रूप है मित्र I
इसमें दीखता है मुझे, ईष्ट देव का चित्र I

कहता कोई दुखद है, मायामय संसार I
राम नाम के जाप से, बेडा होगा पार I

एक बताते भोगमय,  सकल जगत व्यवहार I
स्वर्ग नर्क सब है यहाँ,  यही सत्य का सार I

नर के वश का कुछ नहीं, कोई कहे विचार I
इन्गिति पर ही नाचता, यह सारा संसार I

मैं बपुरा हूँ सोचता, किंकर्तव्यविमूढ़ I  
सचमुच ही करणीय क्या यह है प्रश्न निगूढ़ I

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१०.  श्रीमती छाया शुक्ला  

प्रथम प्रस्तुति

सही बात है जी नहीं मैं डरूँगी
बुझे दीप में भी उजाला भरूँगी
करूं पूर्ण कर्त्तव्य माथे लगाऊं
दुखी दीन से भी खुशी बाँट आऊं ||

उदासी मिटाऊं हँसी दूं पियारी
बुझे स्वप्न को ढो रही ये दुलारी
निभाती सभी आय कर्त्तव्य सच्चा
यही धर्म ढोती यही फर्ज़ अच्छा ||

द्वितीय प्रस्तुति

कवि हूँ
चेतना जगाता हूँ
लेकर समाज से
समाज को
आइना दिखाता हूँ  |
पीड़ा की हरेक आह
गीत में ढालता हूँ  |
वेदना के तार से मुक्तक सजाता हूँ  |
कवि हूँ
कर्त्तव्य निभाता हूँ  |
दुर्घटना की चेतावनी दे जाता हूँ |
कवि धर्म निभाता हूँ  |
टूटे हुए दिल पर
शब्दों का मरहम लगाता हूँ  |
आंसू पोंछता
रूठे को मनाता
हर अधर पे
मुस्कान लाता हूँ  |
कवि हूँ कवि धर्म निभाता हूँ  |
कुसंस्कारों पे तंज कसता हूँ |
बेसहारों का सहारा बनता हूँ |
कर्त्तव्य पथ का पथिक
समाज से लिया समाज को लौटाता हूँ  ||

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११.  श्री अरुण कुमार निगम

अपनी-अपनी सोच है , अपने हैं मंतव्य
अधिकारों के सामने , गौण हुये कर्तव्य ||

बेड़ी-से कर्तव्य अब , हार लगें अधिकार
भ्रमित हुई है सभ्यता, दिशाहीन संस्कार ||

सिर्फ दिखावे के लिये, कर्तव्यों की ओट
सही नहीं जाती यहाँ, अधिकारों पर चोट ||

क्षण-भंगुर संसार में, जीवन के दिन चार
लौह सदृश कर्तव्य हैं, काँच सदृश अधिकार ||

मोक्ष नहीं देते कभी, भवन भूमि धन द्रव्य
उऋण कराने के लिये, उपयोगी कर्तव्य ||

कर्तव्यों में सुख बसा, देख परख पहचान
अमर बनाते हैं यही , देते हैं सम्मान ||

कर्तव्यों की नाव चढ, कर बैतरणी पार
साँसें जैसे ही थमीं, शून्य सभी अधिकार ||

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१२. श्री अविनाश बागड़े
एक नव गीत
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कर्तव्यों की बलिवेदी पर
होम कर दिए प्रान।

देश-धर्म है सबसे पहले
देश की खातिर सब कुछ सह ले
निज चिंता पर डाल के मिटटी
मांग लिया अवसान।
कर्तव्यों की बलिवेदी पर
होम कर दिए प्रान।

नहीं काटते घूस की फसलें
नहीं लोभ के तट पे फिसले
सद्कर्मों की सदा बांचते
गीता और कुरान
कर्तव्यों की बलिवेदी पर
होम कर दिए प्रान।

कर्तव्यनिष्ठ हर मन का सपना
स्वच्छ रखो मन-उपवन अपना
तभी स्वच्छता का हो पाये
सफल एक अभियान

कर्तव्यों की बलिवेदी पर
होम कर दिए प्रान।

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१३. श्री सत्यनारायण सिंह
   
गीता का उपदेश यह, है सबको ध्यातव्य।  
गौण समझ अधिकार नर, कर अपना कर्तव्य।।

कर अपना कर्तव्य, त्याग फल की अभिलाषा।
धर्म कर्म का राज, यही उसकी परिभाषा।।
सत्य खोट कर्तव्य, रखे जीवन को रीता।
यही शोध मन बोध, दिलाती हमको गीता।।

अच्छे दिन की देश में, तब होगी शुरुआत।
अपने ही कर्तव्य की, लोग करें जब बात।।
लोग करें जब बात, जगेगी किस्मत सोती।
उगले मिट्टी देश, स्वर्ण रज हीरा मोती।।
कहता सत्य पुकार, स्वप्न होंगे सब सच्चे।
यही प्रबंधन सूत्र, दिखाएगा दिन अच्छे।।

भाषा जन अधिकार की, दिखे कर्म पर मूक।
जीवन में सबसे बड़ी, मानव मन की चूक।।
मानव मन की चूक, दिलाती घोर निराशा।
मिल जाती है धूल, मनस की सब प्रत्याशा।।
कहता सत्य पुकार, सफल होगी अभिलाषा।
साध मौन अधिकार, कर्म की बोलें भाषा।।

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१४.  श्री रविकर

सवैया

कर्तब कर्तब मा करके, भरके घरबार निभावत है |
माँग रहा अधिकार सदा, हड़ताल-घिराव करावत है |
स्वारथ के वश में मानुष, अपने हित के हित धावत है |
रावण राज बनाय रहा, पर राम क राज बतावत है||

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१५.  श्रीमती सरिता भाटिया

आपके आँगन की कली थी
बेटी बनकर मैं खिली थी
माँ के आँचल की छाया ने
बेटी का कर्तव्य सिखाया

हाथ थाम के आपने भैया
पार लगाई यौवन नैया
आपने जीवन पाठ पढ़ाकर
बहन का कर्तव्य सिखाया

मायके से ससुराल में आई
प्रीत से ही हर रीत निभाई
दो घरों के संस्कारों से
बहु का कर्तव्य निभाया

घर समाज के कर्तव्यों से पहले
देश के अगर कर्तव्य निभाओ
अपने सपनों को पूरा कर
नई क्रांति देश में लाओ

फल की इच्छा को छोड़ कर
निष्ठा से सब कर्तव्य निभाओ

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१६.  श्रीमती राजेश कुमारी

लिए कलम की ताब रहा है जाग
कवि  तेरा कर्तव्य

चलते फिरते बुत पत्थर के
निष्पंद हुई  संवेदनाएं
शोषक शोषित के मध्य
मूक बधिर चहुँ दिशाएँ
सुप्त-सुप्त पगडंडियां
धुंध भरा  गंतव्य

लिए कलम की ताब
रहा है जाग
कवि तेरा कर्तव्य

शैल के तन पर जख्म असंख्य
तटिनी,जल ,खनिजों के दोहन
मत्त गजों के पांव तले  
हरिता प्रकृति का मर्दन
कुपित दामिनी की चीखें
सुन कहे क्या ध्यातव्य  
   
लिए कलम की ताब
रहा है जाग
कवि तेरा कर्तव्य

अहम् सदा इन्सानी  दुश्मन
ऊँच नीच की गहरी खाई
सूखी रिश्तों की झीलें
जमी नफरतो की काई
व्यर्थ गया परामर्श
मौन तेरा  मंतव्य

लिए कलम की ताब
रहा है जाग
कवि तेरा कर्तव्य

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१७. डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’

युवापीढ़ी को अच्‍छे और बुरे का भी हो बोध।
अपने दायित्‍वों और कर्तव्‍यों का भी हो बोध।
राष्‍ट्र विकास में जुड़ने के, तब होंगे मार्ग प्रशस्‍त,
जब दृढ़ इच्‍छा-शक्ति व संकल्‍पों का भी हो बोध।

संस्‍कारों से करना होगा, शुभारंभ अभिज्ञान।
निश्चित करने होंगे ध्‍येय, परिणाम और प्रतिमान।
कंटकीर्ण होंगे पथ, मौसम, समय कहाँ रुकते हैं,
सदा युगंधर पर करता है, सारा जग अभिमान।

संभव है आगे बढ़ने में, आयेंगे अवरोध।
युवापीढ़ी को अच्‍छे और-------------------------

स्‍वच्‍छ धरा हो, निर्मल वायु, प्रदूषण मुक्‍त जगत् हो
नंदनकानन हो पथ वृक्षाभूषण युक्‍त जगत् हो
उपनिवेश आदर्श बनें, हो प्रजा प्रबुद्ध निष्‍णात,
प्रेम और सौहार्द बढ़ें, खर-दूषण मुक्‍त जगत् हो।

सहज नहीं है सृजन, प्रकृति के भी होंगे प्रतिरोध।
युवापीढ़ी को अच्‍छे और------------------

बीत रहा कल आज जिये जा रहे, भ्रमित सा जीवन।
श्रमजीवी दल जिये जा रहे, विस्‍थापित सा जीवन।
ग्राम आज भी ढाणी से हैं, कस्‍बे छोटे हलके,
शहरों में सब जिये जा रहे, अभिशापित सा जीवन।

नये-नये हों परिवर्तन और नये-नये हों शोध।
युवापीढ़ी को अच्‍छे और------------------

जीवन को जीने का इक, उद्देश्‍य हो इक संकल्‍प।
राष्‍ट्र उन्‍नति को इक जुट हो, ढूँढें एक प्रकल्‍प।
कर्माश्रयभृति ना जीवन, साहस हो सत्‍यंकार,
मातृभूमि पर न्‍योछावर, अंतिम हो एक विकल्‍प।

बनना यदि कर्तव्‍य परायण, सभ्‍य, समर्थ, प्रबोध।
युवापीढ़ी को अच्‍छे और------------------

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१८.  सौरभ पाण्डेय

कुण्डलिया छन्द
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माता-मन सबके लिए, रखता कितने भाव
इसी भाव में डूब कर, सधते हैं बर्ताव
सधते हैं बर्ताव, जिसे व्यवहार कहें हम
अपनों के प्रति राग? नहीं, दायित्व न हो कम !
दायित्वों में राग, मिले, कर्त्तव्य कहाता
कर्त्तव्यों का बोध, बताता मन जो माता

माना सबसे श्रेष्ठ है, भारत का कानून
बिना गुने इसको मगर, सारे अफ़लातून
सारे अफ़लातून, नहीं कर्त्तव्य सुहाता  
मात्र मिले अधिकार, देखता कौन विधाता
कैसा है कानून, न अंधा, लेकिन काना
कर्तव्यों के पाठ, चाह कर भी ना माना

मानव अपने कर्म का, प्रतिफल चाहे भव्य
जिसको पाने के लिए, आवश्यक कर्त्तव्य
आवश्यक कर्त्तव्य, अन्यथा जीवन दुष्कर
निभे न सबसे रीत, समर्पण दीखे कमतर
पशु तक में यह भाव, मगर कैसा है दानव
अपनों से मुँह मोड़, स्वार्थ में जीता मानव

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१९.   रमेश कुमार चौहान  

मांग रहे अधिकार, सभी जन आज यहां तो ।
होते क्या कर्तव्य, मानते नही जहां तो ।।
माने जो कर्तव्य, कहां अधिकार जताते ।
करते वे निज काम, कभी भी नही सताते ।।

मां बालक ले गोद, स्नेहमय दूध पिलाती ।
साफ करे मल मूत्र, जतन कर वह हर्षाती ।।
चाह नही कुछ मूल्य, नित्य कर्तव्य निभाती ।
जीवन में अधिकार, कहां वह कभी जताती ।।

धरती सूरज चांद, नित्य हर पल कर्म करे ।
रहे सदा निस्वार्थ, लोक मन में हर्ष भरे ।।
कर्म करें निष्काम, करें ना फल की चिंता ।
कर्म यही कर्तव्य, कहे गीता भगवंता ।।

द्वितीय प्रस्तुति

  तांका

            कर्तव्य क्या है ?
        कोई नही जानते
        ऐसा नही है
        कोई नही चाहते
        कांटो पर चलना ।

           स्वार्थ के पर
        एक मानव अंग
        मानवीकृत
        मांगते अधिकार
        कर्तव्य भूल कर ।
           
           लड़े लड़ाई
        अधिकारों के लिये
        अच्छी  बात है
        रखें याद यह भी
        कुछ कर्तव्य भी हैं ।

           जो चाहते हैं
        कर्तव्य परायण
        सेवक पुत्र
        वह स्वयं कहां है
        कर्तव्य परायण

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२०. श्री जितेन्द्र जीत

यहाँ सब कुछ तो है
बहुत सुंदर है यह संसार
बड़ा भी इतना
कि सब कुछ ही तो है
अँधेरा भी है, अधर्म भी
असत्य भी भरपूर है.
बेईमानी की भी तो,
कहीं कोई कमी नही
टेक सेर बिक रहा है यहाँ
आओ..! बस खरीद लो
खूब है, चिंता न करो
उधार भी मिल जाएगा, अंतत: मुफ्त भी
ख़त्म नहीं होगा
कतार में लगने की भी नहीं है जरुरत
घर पहुँच सेवायें भी मिल जायेंगी
बस! तनिक विचार करलो
बहुत सुविधाएं है, यहाँ
बहुत से अधिकार भी बना रखे है
एक बार कह तो दो
चलो ठीक है, नहीं कहोगे
तो भी यह सब
चेहरा देखकर भांपा जा सकता है
मुंह में हाथ डालकर भी निकाला
जा सकता है...
उधर तो देखो जरा
वो प्रेम, समर्पण
और कर्तव्यों से लदी दुकान
बंद  सी पड़ी है
न जाने क्यूँ..?
मक्खियाँ भिन- भिना रहीं है
देखो तो जरा..
कितने कम लोग
झुके हुए कन्धों पर
लाद कर ले जा रहें है
थोड़ा-थोड़ा सा सामान
क्या पता..?
नादान हो सकते है
वो लोग
हाँ! शायद यही सच है
नादान ही तो हैं....

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२१.  श्री केवल प्रसाद

    कत् र्तव्यों की अजब कहानी
    जीवन भर करता नादानी।


    भूख लगे तो चिल्लाता यों,
    सारे जग का मालिक है वों।
    शोषण का अपराध हृदय में,
    खोखल तना घना लगता वो।।
    हाथ-पैर-मुख कर्म करे पर,
    अॅखियॉं मूॅंद करे बचकानी।।1 ....कत् र्तव्यों की अजब कहानी


    दया-करूण की ममता देवी,
    निश्छल अन्तर्मन की वेदी।
    नहीं जरा भी रूक पाती है,
    करूणा-ममता बरसाती है।
    जीवन भर उल्लास बॉंटकर,
    पीती सदा नयन से पानी।।2 ....कत् र्तव्यों की अजब कहानी


    बड़ा हुआ तो तेरा - मेरा,
    सम्बन्धों का जाल घनेरा।
    छिछले-लिजलिज अवयव से नित,
    साधे काम-मोह के निज हित।
    देह रिक्त बिन प्राण पखेरू,
    फिर भी पंख नोचता दानी।।3 ....कत् र्तव्यों की अजब कहानी


    प्रकृति-नारि से सब जग जन्मा,
    मगर अजन्मा अक्षुण आत्मा।
    जीवन के सद कर्म सुझाता,
    संस्कृति हित संस्कार बनाता।
    फिर भी मानव द्वेष -क्लेश  में,
    प्रगति चक्र पर फेरे पानी।।4 ....कत् र्तव्यों की अजब कहानी

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२२.  श्री सुशील सरना

    कुछ न होगा
    भावहीन,निष्प्राण और निष्क्रिय से
    चेहरों के आगे
    अपने अश्क बहाने से
    अपने मिटे लाल की
    पीड़ा दोहराने से

    जिसे मसीहा समझ
    स्वयं को उसे सौंप दिया
    उसके पास फुर्सत नहीं
    कि वो किसी के बहते अश्कों पे गौर करे
    अरे बावलों,
    समेटो अपने अश्क और
    मसीहा को मुस्कुराने दो

    उसकी तिजोरी
    तो हर रोज बे-इन्तहा खाती है
    पर फिर भी वो बेचारी कहलाती है
    ये रचना कोरी कहानी नहीं
    अखबार में छपी एक डाक्टर की
    संवेदनहीनता की ज्वलन्त दास्तान है
    एक नारी के मृत पैदा हुए लाल के शव लिए
    परिवार के परिजन
    हाथ जोड़ कर
    उसे लौटाने की गुहार करते रहे
    और मसीहा
    फीस की रट लगाते रहे
    जाहिर है
    अगर मसीहा उनके
    अश्कों पर पिघल जाता
    तो अपने पेशे की फीस कहाँ से पाता
    जीवन दान देने वाला ही ग़र
    पत्थर बन जाएगा
    तो वो जीवनदाता नहीं
    संवेदनहीन इंसान कहलायेगा

    ऐसे कर्मों से
    अपने पावन पेशे में निहित
    पावन कर्त्तव्य को
    कलंकित कर जाएगा

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२३.  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

हरिगीतिका

ज्ञातव्य क्या है जगत में गुरु-   जन बताते थे कभी I
ध्यातव्य  की भी भावना का     मंत्र समझाते सभी I

मंतव्य पर अब एक का भी      पूत पावन है नहीं I
कर्तव्य निर्धारण सुमति से   अस्तु अब कर लो यही I

कर्तव्य की उदभावना यदि      हो सुमंगल भाव से I
तो मार्ग दर्शन नित करेंगे     देव भी अति चाव से I

आश्वस्ति से जब तुम बढोगे    सिर झुकायेंगे सभी I  
होगा नहीं कुछ बाल बांका      विश्व में तेरा कभी I

सम्भावना होगी कि जीवन     सरल सादा शांत हो I
होगा नहीं ऐसा कभी भी       सरलता ही भ्रांत हो I

धन-संपदा, ऐश्वर्य, वैभव     शोभता कब भव्य को I
देना पड़ा है वेदिका पर        प्राण हर कर्तव्य को I

*****************************************************************
    

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जय हो..  .. :-))))

जय जय  :-))))))

वाह! क्या बात है.एडमिन ने इतनी शीघ्रता से सम्पादित भी कर दिया और संकलित भी.बहुत- बहुत बधाई इस प्रस्तुति के लिए.जय- जय.

बधाई। 

रचनाओं के संकलन पर बहुत -बहुत बधाई व् शुभकामनाएं

सादर!

इस सुन्दर त्वरित संकलन के लिए एडमिन जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें |

संकलन अतिशिघ्र प्रकाशित किया  गया, माननीय एडमिनध्मंच संचालक को सादर बधाई

  महोदय मेरी द्वितीय प्रस्तुति के प्रथम तांका को निम्नवत संशोधित करने की कृपा हो -

        कर्तव्य क्या है ?
        कोई नही जानता
        ऐसा नही है
        कोई नही चाहता
        कांटो पर चलना ।
सादर

वाआआह इस सुंदर संकलन के लिए हार्दिक बधाई 

 शीघ्र संकलन हेतु हार्दिक बधाई. आदरणीय 

एडमिन को सादर बधाई i

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