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लौट रहे घन

लौट रहे घन

बाँध राखियाँ

धरती के आँगन को

हर इक प्यासे मन को

 

हरी-भरी चूनर में

धरती

मंद-मंद मुस्काये

हरा-भरा खेतों का

सावन

लहराये-इतराये

 

प्रेम प्रकट करने

झुक आयीं

शाखें नील गगन को

 

नदिया का शृंगार

लहर के

स्वर में बोल रहा है

मस्त पुलिन का

अंग-अंग भी

जैसे डोल रहा है

 

बेकल हैं सारी  

धाराएँ

पावन सिन्धु मिलन को

 

भीगे-भीगे वन की

दौलत

अम्बर चूम रही है

साथ पवन के

कजरी ठुमरी

गाती झूम रही है

 

देती झौंका

नर्म हवा भी

फूल भरे उपवन को

#

 

अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’

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Comment by Ashok Kumar Raktale on August 27, 2024 at 5:29pm

   आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर 

Comment by Ashok Kumar Raktale on August 27, 2024 at 5:28pm

  आदरनी सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तुत रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर 

Comment by Samar kabeer on August 24, 2024 at 2:37pm

जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, बहुत सुंदर गीत हुआ है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sushil Sarna on August 23, 2024 at 3:41pm

वाह  आदरणीय अशोक रक्ताले जी बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति हुई है सर जी । हार्दिक बधाई 

Comment by Ashok Kumar Raktale on August 23, 2024 at 2:08pm

आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2024 at 2:45am

आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बहुत मनमोहक गीत हुआ है। कोटि कोटि बधाई।

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