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ग़ज़ल नूर की - जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया

जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया 
सुनते हैं वो पागल लड़का टूट गया.
.
थामा ही था हाथ तुम्हारा मैंने बस
और अचानक मेरा सपना टूट गया.
.
अब ये आँखें कोई ख्वाब नहीं बुनतीं
पिछली नींद में मेरा करघा टूट गया.
.
अपने लालच को तुम काबू में रक्खो
वो देखो इक और सितारा टूट गया.
.
एक ज़रा सी बात से बातें यूँ बिगडीं
फिर तो जैसे हर समझौता टूट गया.
.
आप अदू से दूर हुए ये नेमत है
बिल्ली की क़िस्मत से छींका टूट गया.
.
कह के मुकरना तेरी आदत होगी पर
सोच अगर लोगों का भरोसा टूट गया.
.
तेरी याद की गहरी खाई से बाहर
आते ही आते फिर रस्सा टूट गया.
.
“नूर” मेरा उस नूर से मिल जाएगा फिर
जस पल मेरे जिस्म का पिंजरा टूट गया.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/अप्रकाशित 

Views: 857

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2021 at 9:47am

धन्यवाद आ. सुरेन्द्र भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2021 at 8:38am

धन्यवाद आ. श्याम नारायण जी 

Comment by नाथ सोनांचली on October 14, 2021 at 7:04am

आद0 भाई नीलेश नूर जी सादर अभिवादन।

मुझे तो हर शेर सवा शेर लगा। गज़ब का कथ्य लिया है आपने। क्या कहने। बाकमाल। बहुत बहुत बधाई भाई जी

Comment by Shyam Narain Verma on October 8, 2021 at 11:35am
नमस्ते जी, बहुत ही उम्दा प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 6, 2021 at 5:05pm

//मैं चूँकि उस सामान्य से आगे देखता हूँ //

जय हो .. :-))

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 6, 2021 at 9:25am

धन्यवाद आ. बृजेश  ब्रज जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 6, 2021 at 9:25am

धन्यवाद आ. सौरभ सर..
आप का ग़ज़ल पर आना ही अपने आप में ईनाम होता है. आपकी विस्तृत टिप्पणी से अभिभूत हूँ. 


"अपने लालच को तुम काबू में रक्खो / वो देखो इक और सितारा टूट गया. ".. सितारे टूटने पर कुछ मांगना सामान्य और तयशुदा सी बात है ..
मैं चूँकि उस सामान्य से आगे देखता हूँ इसलिए सोचता हूँ कि सितारे टूटते ही इसलिए हैं कि कोई कुछ माँग सके..नियति स्वयं को प्रकट करने के मार्ग स्वयं प्रशस्त करती है ...

मैंने माण्डूकोपनिषद तो नहीं पढ़ा लेकिन मुझे लगता है 5000 साल की जीन मेमोरी जो कहीं से चली आ रही है उसने मेरे मस्तिष्क के किसी उतक को उत्प्रेरित किया होगा जिससे यह शेर हो पाया ..
वैसे भी सब कुछ कभी न कभी कहा ही जा चुका है.. न्य कुछ नहीं सिवाय अंदाज़-ए-बयाँ के.. 

आपको ग़जल पसंद आई तो लिखना सार्थक हुआ..
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 6, 2021 at 9:17am

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 5, 2021 at 3:16pm

वाह क्या ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आदरणीय नीलेश जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 5, 2021 at 2:36pm

आदरणीय नीलेश भाई, इस अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें.

एक-एक कर शेरों में ठोस बिम्बों का विपुल प्रयोग चकित भी करता है, प्रायोगिक तो है ही.

यथा, ’मेरा करघा टूट गया’ या, ’.. गहरी खाई से बाहर / आते ही आते फिर रस्सा टूट गया’ 

अपने लालच को तुम काबू में रक्खो / वो देखो इक और सितारा टूट गया.  ......... भाई, ये बात कुछ समझ में नहीं आयी. सितारे का टूटना ही तो लालच का कारण होता है, जो इसे हवा देता है, न कि वाइस-वर्सा.

सितारे टूटते हुए न दीखें, तो कोई अपने मन की मुराद की पूर्ति के लिए ललक भी न दिखाए. इस सोच की बिना पर मैं अपनी बात रख रहा हूँ. 

थामा ही था हाथ तुम्हारा मैंने बस / और अचानक मेरा सपना टूट गया.  ........ इस शेर के होने पर मैं मुग्ध हूँ. लेकिन कमाल तो मक्ता ने किया है - “नूर” मेरा उस नूर से मिल जाएगा फिर / जस पल मेरे जिस्म का पिंजरा टूट गया. 

क्या बात है. क्या बात है ! 

मक्ता को माण्डूक उपनिषद के अद्वैतप्रकरण की श्लोक-संख्या 4 के आलोक में देखिए -

घटादीषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा ।
आकाशे प्रलीयन्ते तद्वज्जीवा इहात्मनि ।।
अर्थात, घड़ों के टूट जाने पर जैसे उनके भीतर के आकाश और बाहर के बृहद आकाश केबीच का भेद मिट जाता है, और दोनों आकाश एक-दूसरे के साथ एकाकार हो जाते हैं, वैसे ही जीवात्मा मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है. 

जय-जय 

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