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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-72 (विषय: बेड़ियाँ)

आदरणीय साथियो,
सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-72 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है:
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-72
विषय: "बेड़ियाँ"
अवधि : 30-03-2021 से 31-03-2021 तक
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अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फ़ॉन्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है।
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाए रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाएँ इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद ग़ायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आसपास ही मँडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया क़तई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा ग़लत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फ़ोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

"अम्मा तीस मार्च आने वाली है ! आयोजन का रूप-रंग पहले जैसा रखोगी  या कुछ  बड़ा किया जाना है?"प्रवेश  के ये शब्द  सुनते न सुनते माँ बोली , " क्या...क्या  ! तीस मार्च.... तो क्या  हुआ ? क्या मतलब है तुम्हारा ? " 

अपनी माँ  की याद्दाश्त  दुरुस्त  करते हुए  बोला, " अम्मा राशि,  तुम्हारी पड़पोती तीस मार्च  को साल भर की हो जाएगी ! उसके जन्म  दिन पर क्या करना है ?  प्रवेश के पिता की मौत  के बाद  परिवार माँ  रूपी धुरी पर टिका  था !  हमारे  यहाँ लड़कियों का जन्मदिन  नहीं  मनाया  जाता", माँ  बोली । 

  • विषयपरक रचना।बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय चेतन सरजी। 

सु श्री बबिता गुप्ता जी नमस्कार, लघुकथा आपको बहुत अच्छी लगी, रचना को सुयोग्य संस्तुति प्राप्त हुई, आदरणीया! 

आदाब। चिरपरिचित कथानक व कथ्य पर.बढ़िया रचना आदरणीय चेतन प्रकाश जी। शीर्षक देना आप भूल गये हैं। विषयांतर्गत इससे बेहतर रचना की अपेक्षा हम पाठक आपसे करते हैं।
【गूगल और गूगल क्रोम से इस वेबसाइट पर आने पर.मुझे कुछ अनर्गल एप्स व वेबसाइट के व.वाइरस अपडेशन करने की चेतावनी देने वाले फर्ज़ी एप्स/हैकर्स आदि का सामना कुछ महीनों से.करना पड़.रहा है। सभी संभव उपाय करके देख लिए हैं। जनाब इंजी. बागी साहिब को भी विगत माहों में.सूचित किया था। मेरे मोबाइल में ख़राबी की.संभावना बताई गई थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि केवल.ओबीओ वेबसाइट में मेरे मोबाइल सेट पर.ऐसा क्यों हो.रहा है। कृपया जानकार साथी इनबॉक्स या वाट्सएप पर.समाधान बताइएगा।】

 आदाब, शेख शहज़ाद उस्मानी साहब,  जो कथानक आपको चिरपरिचित लग रहा है, उसकी गूंज आप वस्तुतः सुन नहीं पाए! हाँ, शीर्षक  एडिट कर 'विरासत' देने का प्रयास किया था, लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा नहीं हुआ! साभार! 

हो सकता है। कृपया समझाइयेगा।

दिशा (लघुकथा) :


कमरे का दरवाज़ा बंद कर संस्कृति अपनी सहेली सी चचेरी बहन जागृति के कान के नज़दीक़ जाकर बोली, "हमारे मम्मी-पापा जो कुछ भी मुझसे बोलते थे, मैं झूठ समझती थी। पैसों और फीस की परेशानियाँ बता कर मुझे ऑनलाइन क्लास ज्वाइन नहीं कराते थे। लेकिन एक दिन मुझे पता चल गया कि वे सही थे। सोशल मीडिया में जो बड़ों के लिये विज्ञापन और लिंक्स आती हैं, उन में सचमुच बड़ों की चीज़ें ही होती हैं!"


"क्या मतलब!" जागृति ने चौंक कर कहा, "तो क्या तुमने एट्टीन प्लस वाली चीज़ें देख लीं स्मार्ट-फ़ोन पर! मैं तो अपने मम्मी-डैडी की गाइडलाइंस फॉलो करती हूँ। ऐसी-वैसी वीडियो या लिंक पर जाती ही नहीं। उन से बच्चों की साइकोलॉजी बिगड़ जाती है। सभी यही कहते हैं!"


" लेकिन मैं उन सब बातों को झूठ और डराने का तरीक़ा समझती थी। एक दिन मम्मी पापा के कान में धीरे से जो कह रही थीं, मैंने भी सुन लिया। फ़िर एक दिन मम्मी-पापा के फ़ोन पर कन्फ़र्म कर ही लिया। इतना कहकर संस्कृति ने जागृति का स्मार्ट-फ़ोन छीनते हुए कहा, "ला तुझे दिखाती हूँ वो सब। तू तो बस पढ़ाई में लगी रहती है ऑनलाइन और ऑफलाइन भी!"

यह सुनकर जागृति मुस्करा कर संस्कृति से बोली, "कुछ भी न कर पाओगी। इसमें चाइल्ड सेटिंग्स रखते हैं हमारे मम्मी-डैडी और यह सिर्फ़ मेरा स्मार्ट-फ़ोन है!"


"लेकिन हमारे घर में तो सबके लिए एक ही है।" संस्कृति ने रुआँसी होकर कहा।


"तो क्या हुआ। तुम्हें टीचर्स और पेरेंट्स की गाइडलाइंस फॉलो करनी चाहिए न! तुम कभी हमारे घर आना। हमारे मम्मी-डैडी तुम्हें अच्छी तरह समझा देंगे।" जागृति ने संस्कृति के हाथ से अपना स्मार्ट-फ़ोन वापस लेते हुए कहा।


कमरे की खिड़की से संंस्कृति की मम्मी ने उन दोनों की यह बातचीत सुन ली। उन्होंने बेडरुम में जाकर अपने पति के कान के नज़दीक़ जाकर वह सब सुनाते हुए कहा, "बंदिशें समाधान नहीं हैं! तुमने जो सख़्ती बरती, उस से क्या मिला? आज मुझे मालूम हुईं संस्कृति के रवैये और आदतों में बदलाव की वज़हें!"


"जी नहीं, बंदिशें और सख्तियाँ ही समाधान हैं! बच्चों पर और औरतों पर भी! तुमने जो ढिलाई बरती, उससे क्या हासिल हुआ?" जवाब स्मार्ट-फ़ोन बिस्तर पर पटक कर दिया गया।
"मर्दों पर नहीं, है न!" इस प्रत्युत्तर के साथ पति-पत्नी में बहस छिड़ गई। संस्कृति और जागृति अब उनके बेडरुम के दरवाजे पर खड़ी बहस सुन रही थीं।


(मौलिक व अप्रकाशित)

आदाब, Sheikh Shahzad Usmani sahab, 'दिशा' देकर 'पंच लाइन' में जाकर भटक गए  जनाब, आप  ! और, लघुकथाकार अनावश्यक ही  असफल  हो गया ! फिर  भी कथ्य कई वर्ष से बहस  में होते हुए  भी अभी  प्रासंंगिक है !

यदि आपको ऐसा लगा है, तो निश्चित रूप से रचना पर विचार करूंगा। वैसे भटकाव आदि  यदि आप स्पष्ट कर सकें, तो बेहतर  आदरणीय चेतन प्रकाश जी।

पिघलती बेड़ियां...

मंडप में पंडित के कन्यादान रस्म के मंत्रोचारण के साथ काव्या ने अपनी भतीजी मुस्कान के हाथो में हल्दी लगाते हुये उसकी ऑखें डबडबा आई।मुस्कान ने काव्या को लगाते हुये मद्धिम स्वर में फुसफुसाकर कहा, 'क्या चाची आप भी ना...मेरे फोटो खराब हो जायेगे...और फिर विदाई के लिए बचाकर रखिए...!'
ऑखों से डांटते हुये चुप रहने को कहा,प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुये छोटी-सी मुस्कान की खिलखिलाती हुई छवि...उसकी चुलबुली बातें चलचित्र की तरह ऑखों में तैर गई।
जब नई दुल्हन बन गृहप्रवेश के उपरांत रीतिरिवाज के मुताबिक तीन वर्षीया मुस्कान को गोद में खेलने के लिए बिठाया गया तो उसकी भोली-भाली बातों ने ऐसा मोहपाश में बांधा कि एकदिन मुस्कान की मां के सामने अपनी मंशा जाहिर करते हुये कहा, 'मुस्कान का कन्यादान मैं ही लूंगी...।' मुस्कान की मां कुछ कहती कि अपनी बात आगे बढ़ाते हुये कहा, 'बस आपने जो इसके लिए सोच रखा हैं आप कीजिएगा बाकी मेरी जिम्मेदारी हैं।'
लेकिन भाग्य को किसने बांचा हैं...अपनी मुस्कान का जोड़ी से कन्यादान करने का अरमान वक्त के हाथों मजबूर हो जायेगा...मेरा सफेद लिवास रूढ़िवादी परंपराओं के आड़े जायेगा...।
'कैसी जिद करवे करे बिटिया...मंडप में विधवा का साया पड़ना भी अपशगुन होवे...,' दादी ने रूष्टता से मुस्कान को चुप कराते हुये कहा।
'किस जमाने की बात करती हैं आप दादी।चाची ने आप सबसे ज्यादा प्यार दिया...हर जगह मेरे साथ साये की तरह रहने वाली चाची ...चाचा के जाते ही कैसे अपशगुनी हो गई।'
'अपनी पढ़ाई-लिखाई की बातें अपने पास रख...और फिर कुछ सोचसमझकर ही रिवाज बनाये गये हैं  समाज में...!'
'किस समाज की बात कर रही आप दादी?हमसे समाज हैं ना कि समाज से हम...और फिर चाची ही मेरा कन्यादान करेगी तो शादी करूंगी वरना...!'दृढ़ शब्दों में मुस्कान कहते हुये अंदर चली गई।
मुस्कान के जिदभरे शब्दों में कहीं-ना-कही सच्चाई झांकती देख मुस्कान के मम्मी-पापा ने दादी को समझाते हुये कहा, 'हां अम्मा, हम दोनों ने उसी दिन मुस्कान का कन्यादान कर दिया था जिन दिन काव्या ने उसे अपनी बेटी बना लिया था।'
तर्क-वितर्कभरी बहस के पश्चात आखिर में दादी सहमति में सिर हिला दिया। हुये कहा, 'काश ! हमार बिटिया के हाथ पीले करते समय कोऊ मुस्कान होती।'
वर-वधू को फेरों के लिए पंडित की आवाज से चेती काव्या अश्रुपूरित नेत्रों से कुछ कहती कि इससे पहले  मुस्कान की दादी ने निरीह शब्दों में कहा, 'काश!हमार इकलौती बिटिया के हाथ पीले करते वखत कोऊ मुस्कान होती...!'
स्वरचित व अप्रकाशित हैं।
बबीता गुप्ता


आदाब। विषयांतर्गत रुढ़िवादिता पर बहुत ही भावपूर्ण बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता जी।  शीर्षक में 'पिघलती' शब्द कितना सही है, समझना चाहूंगा। मेरी राय में शीर्षक 'टूटती बेड़ियाँ' भी हो सकता था। रचना में सम्पादन व कसावट की ज़रूरत भी महसूस हो रही है।

आज कम रचनाएँ पढ़ने को मिलीं हैं। अभी भी प्रतीक्षारत..

बहुत-बहुत धन्यवाद, आदरणीय शेख सरजी।

टूटती बेड़ियां सही हैं। 

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