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काश ! ऐसा हो जाये कि,
ज़िंदगी एक पूरा नशा बन जाये,
नशे में सब कुछ माफ हो, और,
ज़िंदगी जीने का मज़ा आ जाये ।

जी लूँ कुछ,
इस तरह कि,
अगले जनम की भी,
चाह न रह जाए।

ऐ दुनियावालों !
क्यों है ये बेइन्तहा मुश्किल?
कि कह सकें-कर सकें वो,
जो दिल करना चाहता हो।

कभी हमें भी था,
भरोसा अपने सपनों पर,
अब अहसास हो गया है कि,
सपने दूसरो के ही र॔ग लाते हैं।

न सोचूँ, न मैं चाहूँ,
न ही दे सकूँ मैं, दर्द किसी को,
पर ज़माने ने जैसे,
ये ठेका, मेरे लिये ही उठा रखा है।

आ जाये जो हँसी,
दिल भर आता है,
गर आ गये जो आँसू,
कहीं दम ही न निकल जाए।

अजीब है, यहां हर कोई पा जाता है,
जो उसकी चाहत है,
मज़ाक तो ये है कि,
अपनी चाहतें ही मर गयी सारी l

आज सब याद आ गया,
आता ही चला गया,
अब तो कुछ ऐसा हो कि,
यादें ही मिट जाएँ सारी।

मौलिक व् अप्रकाशित।

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Comment by R.C.Singh on November 2, 2019 at 12:22pm

आदरणीय उषा जी आपने अपनी इस मोहक कविता में वास्तव में भावों को शब्दों में इस तरह पिरोकर उदगारित किया है कि ये कहना गलत न होगा-
रख दिया है कागज पर कलेजा निकालकर,आपके उदगार व्यावहारिक हैं ।
बधाई स्वीकारें।

Comment by Usha on November 2, 2019 at 11:21am
आदरणीय सुश्री डॉ गीता चौधरी जी, आपके प्रोत्साहन भरे सकारात्मक भावों के लिए हृदय से आभार। सादर।
Comment by Dr. Geeta Chaudhary on November 2, 2019 at 6:45am

आदरणीय उषा जी, अच्छी भावपूर्ण क्षणिकाओं के लिए हार्दिक बधाई! 

Comment by Usha on November 1, 2019 at 9:05pm
आदरणीय समर कबीर सर, मेरी क्षणिकाओं पर आपकी पूर्ण सकारात्मक टिप्पणी से मेरा बहुत उत्साहवर्धन हुआ है। शाब्दिक त्रुटियाँ मेरे संज्ञान में लाने के लिए हृदय से आपका आभार। भविष्य में भी आपका आशीष यूहीं पाती रहूँगी, ऐसी कामना के साथ , एक बार पुनः आपका आभार। सादर।
Comment by Samar kabeer on October 31, 2019 at 2:58pm

मुहतरमा ऊषा जी आदाब,अच्छी क्षणिकाएँ लिखीं आपने,बधाई स्वीकार करें ।

'नशे में सब कुछ माफ हो'

इस पंक्ति में सहीह शब्द 'मुआफ़' है,देखियेगा ।

'जी लूँ कुछ,
इस तरह कि,
अगले जनम की भी,
चाह न रह जाए।

ऐ दुनियावालों !'

इस क्षणिका में 'जनम' को "जन्म" कर लें,और 'दुनिया वालों' शब्दों में दुनिया के बाद स्पेस दें ।

Comment by Dr. Geeta Chaudhary on October 30, 2019 at 10:19am

आदरणीय डॉ० उषा जी क्षणिकाओं की सराहना के लिए हार्दिक आभारI 

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