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शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है ।
ऐ रिन्द मैकदे को तेरी तिश्नगी कुबूल है ।
नजर झुकी झुकी सी है हया की है ये इंतिहा ।
लबों पे जुम्बिशें लिए ये बेख़ुदी कुबूल है ।।
गुनाह आंख कर न दे हटा न इस तरह नकाब ।
जवां है धड़कने मेरी ये आशिकी कबूल है ।।
यूँ रात भर निहार के भी फासले घटे नहीं ।
ऐ चाँद तेरी बज़्म की ये बेबसी कुबूल है ।।
न रूठ कर यूँ जाइए मेरी यही है इल्तिजा ।
मुझे हुजूऱ अपकी तो बेरुख़ी कुबूल है ।।
ये सुन के मुस्कुरा रहा चराग़ स्याह रात में ।
शलभ ने जब कहा यही ये रोशनी कुबूल है ।।
उसी को ज़ख्म हैं मिले उसी को हर सज़ा मिली ।
जिसे तेरे लिए जहाँ की दुश्मनी कबूल है ।।
बिना रदीफ़ बह्र के लिखी थी मैंने जो कभी ।
मेरे विसाले यार को वो शायरी कुबूल है ।।
ऐ रब जरा बता मुझे कदम कदम की मुश्किलें ।
तेरी ही ज़ुस्तजू में तेरी रहबरी कुबूल है ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
ग़ज़ल के सभी अशआर में रदीफ़ और क़वाफ़ी में ताल मेल नहीं है,ग़ौर करें ।
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीय त्रिपाठी जी...
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