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लेती है इम्तिहान ये उल्फ़त कभी. कभी ।
लगती है राहे इश्क़ में तुहमत कभी कभी ।।
आती है उसके दर से हिदायत कभी कभी ।
होती खुदा की हम पे है रहमत कभी कभी ।।
चहरे को देखना है तो नजरें बनाये रख ।
होती है बेनक़ाब सियासत कभी कभी ।।
यूँ ही नहीं हुआ है वो बेशर्म दोस्तों ।
बिकती है अच्छे दाम पे गैरत कभी कभी ।।
मुझ पर सितम से पहले ऐ क़ातिल तू सोच ले ।
देती सजा ए मौत है कुदरत कभी कभी ।।
इज़हारे इश्क़ मैं ही किये जा रहा हूँ यार ।
कुछ तो उठाएं आप भी ज़हमत कभी कभी ।।
आसां नहीं है मैक़दे को भूलना सनम ।
देती सकून रिन्द की सुहबत कभी कभी ।।
उसने बुला लिया है तो मर्जी खुदा की है ।
किस्मत से मिलती यार की कुर्बत कभी कभी ।।
जुगनू की तर्ह जश्न मनाना मेरे हबीब ।
जब आये जिंदगी में वो जुल्मत कभी कभी ।।
कैसे ग़ज़ल कहूं मैं यहाँ मुश्किलात में ।
मिलती है आजकल मुझे मुहलत कभी कभी।।
कब तक कहेंगे आप मियां शाम को सहर ।
सच के लिए भी कीजिये हिम्मत कभी कभी ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 प्रतिभा पांडेय जी ग़ज़ल तक आने के लिए तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया ।
आ0 लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया ।
प्रणाम त्रिपाठी जी शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
आ. भाई नवीन जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
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