अचानक अजीब मनोदशा
अँधेरी हो रही हैं धुँधली आँखें
कुछ नहीं जानता मैं अब भँवर में
कुछ भी नहीं पहचानता हूँ अंत में
यह निसत्बध्ता, यह काया
एकाकार हो रहे हैं क्या ?
साथ बंधी आ रही हैं कभी की
रात देर तक करी हमारी बातें
समुद्र की लहर-सी छलकती
अमृत के झरनों-सी हम दोनों की हँसी
आँखों में ठहरे कभी के अनुच्चरित प्रश्न
पल में तुम्हारा परिचित चिंता में डूब जाना
उफ़्फ़.. इतने वर्षों के बाद भी वही है कैसे
हमारी धधकती हुई गहन वेदना की उष्मा ?
भीतर गुहाओं में कोई गहरी गर्जन
घूम-फिर कर आ जाते थे भारी सवाल
बह जाता था तुम्हारी आँखों से अंजन
अख़बार में पढ़ते कोई गंभीर खबर
अचानक तुम चुप, मैं चुप
कुलबुलाता शून्य भी अप्राकृतिक-सा
सिसकारी भरती गहरी उदासी की छाया
कमरे की हवा का रुख बदलती
ओठों को भींच निज पीड़ा को ठेलती
तू कैसे कह लेती थी ऐसे में भी
"आओ, चाय तैयार है"
आँखों में तिरता एकान्त-पाताल
स्वर में जीवन-यथार्थ की कम्पन
गालों पर बूँद-बूँद पिघलते, लुप्त होते
सहसा सरकते-सिहरते तुम्हारे आँसू
हाथ में हाथ कि जैसे शेष सब समाप्त
हथेलियों पर विरुद्ध-विपरीत
रेंगती पटरियों-सी
आड़ी-टेढ़ी जुड़ती-कटती रेखाएँ
हाय ...
चेतना के छोर पर
मानो मौत को भी पछाड़ता
कैसा था यह संबंधों का जाल ?
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह, इस बहतरीन प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र तेजवीर सिंह जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र सुशील जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी।लाज़वाब प्रस्तुति।
कैसा था यह संबंधों का जाल ?वाह आदरणीय वेदना की ऐसी अनुभूति को आप कैसे शब्दों में चित्रित कर लेते हैं , आपकी कल्पना यथार्थ के पृष्ठों से निकलती प्रतीत होती है। दिल से बधाई स्वीकार आदरणीय निकोर साहिब।
अनिवर्चनीय दादा निकोर जी i अतीत का स्मरण चिंतन इससे अच्छा क्या हो सकता है I
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