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सच की झूठी जिल्दकारी क्या करूँ ..

2122-2122-212

याद आती है तुम्हारी क्या करूँ ।।
छाई रहती है खुमारी  क्या करूँ।।

अब नहीं चलता , मेरे पे बस मेरा।
बढ़ रही नित बेक़रारी क्या करूँ।।

खुद मुआफ़िक आयत ए कुरआन हो।
इसमें अच्छी अर्श कारी क्या करूँ।।

झूठा' सिक्का अब चलन बाजार का
सच की झूठी जिल्दकारी क्या करूँ।।

हर्ज़ कोई बात से मुझको नहीं।
तुम लगा लो  रहगुजारी क्या करूँ।।

हाल ख़स्ता चाल बरहम हो गयी।
ज़ीस्त की ईमानदारी क्या करूँ।।

बद से बदतर हालते सूरत में हूँ।
हाँ गई थी अक़्ल मारी क्या करूँ।।

अब न चल सकता हवा के साथ मैं।
मानता हूँ खुद ही हारी क्या करूँ।।

इक किताबी कब्र मेरी चाह है।
कर रहा खुद की तयारी क्या करूँ।।

.

आमोद बिंदौरी / मौलिक अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 15, 2019 at 6:57pm

आ. भाई आमोद जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई।

Comment by surender insan on March 13, 2019 at 7:49pm

ग़ज़ल का बहुत अच्छा प्रयास किया आपने बहुत बहुत बधाई हो।

Comment by amod shrivastav (bindouri) on March 12, 2019 at 2:01pm

आ समर दादा प्रणाम ..  /शुक्रिया 

Comment by Samar kabeer on March 12, 2019 at 11:58am

जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,मारूफ़ बह्र पर आपके इस प्रयास से आपकी पिछली ग़ज़लों की बनिस्बत ये ग़ज़ल कुछ बहतर कही जा सकती है,हालाँकि इस में भी कुछ शिल्प की कमज़ोरियाँ अवश्य हैं,लेकिन अभ्यास से वो भी दूर हो जाएंगी,शुभेछाएँ, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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