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नया विकल्प ...

हंसी आती है
जब देखता हूँ
रात को दिन कहने वाले लोग
जुगनुओं की तलाश में
भटकते हैं

हंसी आती है
जब लोग नेता और अभिनेता की तासीर को
अलग-अलग मानते हैं
उनकी जीत के बाद
स्वयं हार जाते हैं

हंसी आती है
उन लोगों पर
जो मात्र हाथों में
किसी पार्टी का परचम उठाकर
स्वयं का अस्तित्व भूल जाते हैं
भूल जाते हैं कि वो
मात्र शोर का माध्यम हैं,
और कुछ नहीं

हंसी आती है
इस सोच पर कि
वर्तमान में
दो वक्त की रोटी को तरसती
जनता के लिए
रोटी नहीं
मताधिकार की बात
अहम् मुद्दा है

हंसी आती है
आज लोकतंत्र की
लडख़ड़ाती चाल देखकर
हर मसीहा
अपने तरीके से
लोकतंत्र का इलाज़ करता है
कुछ घाव भरता है
कुछ नए इज़ाद करता है
नतीजा
लोकतंत्र का दर्द वहीं रहता है
फिर यही मुद्दा
चुनाव का आधार बन जाता है
लोकतंत्र का इलाज़
औज़ार बन जाता है

हंसी आती है
स्वयं पर
क्या होगा

ये सब बोलने से
कुछ कहने से बेहतर है
ख़ामोशी
लोकतंत्र के इलाज़ के लिए
फिर किसी नए
वैद्य का इंतज़ार
या

किसी

नए दर्द के लिए
नया विकल्प

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 363

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Comment by narendrasinh chauhan on November 27, 2018 at 8:37pm
सत्य कहा आपने सर, खुब सुन्दर रचना
Comment by Sushil Sarna on November 27, 2018 at 6:54pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब ... सृजन के भावों को अंतस से अंकुरित शब्दों से अलंकृत कर उसका मान बढ़ाने का दिल से आभार।

Comment by Samar kabeer on November 27, 2018 at 3:37pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत उम्दा कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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