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ग़ज़ल

(2122-2122-2122-212)

मुश्किलें कितनी हैं अपने दरमियाँ गिनता रहा ।
बैठ कर मैं राह की दुश्वारियाँ गिनता रहा ।

आँखों में अश्कों का दरिया चढ़ के जब उतरा तो फ़िर,
मैं तो बस ख़्वाबों की डूबी कश्तियाँ गिनता रहा ।

और करता भी तो क्या वो नौजवां बेरोज़गार,
दी हैं कितनी नौकरी कीअरज़ियाँ गिनता रहा ।

राजनेता को न था मतलब किसी इंसान से,
वो तो केवल धोतियाँ और टोपियाँ गिनता रहा ।

वो रहे गिनते मुनाफ़ा कारख़ाने का उधर,
मैं इधर दरिया में मरती मछलियाँ गिनता रहा ।

नाम पर आतंकियों के ले के निर्दोषों की जान,
वो लगीं कंधों पे अपनी फीतियाँ गिनता रहा ।

लहलहाती फ़स्ल पर जब बर्फ़ बारी हो गई
खेत में दहक़ान टूटी बालियाँ गिनता रहा । 

क्या ग़ज़ल पढ़ता भला ' जम्मू' गया जब मंच पर,
धीरे धीरे ख़ाली होती कुर्सियाँ गिनता रहा ।

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by Gurpreet Singh jammu on July 8, 2018 at 8:51pm

शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी 

Comment by Gurpreet Singh jammu on July 8, 2018 at 8:50pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राम अवध जी 

Comment by Gurpreet Singh jammu on July 8, 2018 at 8:49pm

शुक्रिया आदरणीय समर सर जी ..ये आपकी ही इस्लाह का नतीजा है ,  आप ही का आशीर्वाद है ..वरना ये एक साधरण सी ग़ज़ल थी ..आपका बहुत बहुत धन्यवाद ..यूँ ही आशीर्वाद बनाए रखें 

Comment by Gurpreet Singh jammu on July 8, 2018 at 8:47pm

आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी जी ..बहुत बहुत शुक्रिया आपका 

दरअसल इस ग़ज़ल पर  मैंने आदरणीय समर कबीर जी से इस्लाह करवाई है ,  तभी ये ग़ज़ल खूबसूरत हो पाई है ..

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 8, 2018 at 5:10pm

आ. गुरप्रीत जी, बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on July 8, 2018 at 3:33pm

आदर्णीय बहूत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है। मुबारकबाद कुबूल फरमायें।

Comment by Samar kabeer on July 8, 2018 at 2:57pm

जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 8, 2018 at 12:14pm
वाह भाई जी क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही वाह,,,,,

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