पड़ गयी जब से आपकी आदत,
फिर लगी कब मुझे नई आदत.
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ज़ाया कर दी गयीं कई क़समें
ज्यूँ की त्यूं ही मगर रही आदत.
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मुझ को तन्हा जो छोड़ जाती है
शाम की है बहुत बुरी आदत.
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पैरहन और कितने बदलेगी?
रूह को जिस्म की पड़ी आदत.
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चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,
अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.
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ज़िन्दगी यूँ न तू लिपट मुझ से
पड़ न जाए तुझे मेरी आदत.
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आदतन याद जब तेरी आई
रात भर आँखों से बही आदत.
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ये ज़माना नहीं भलाई का
छोडिये “नूर जी” भली आदत.
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निलेश 'नूर'
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सुशील जी
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल आदरणीय निलेश जी। मुरस्सा कलाम ऐसी ही ग़ज़लों को कहते होंगे। वाह वाह वाह।
पड़ी और बेबसी क़ाफ़िये वाले शेर तो बस कमाल।
आदरणीय भाई नीलेश जी इस उम्दा ग़ज़ल पर हरीश बधाई सादर
वाह,वाहहह,लाजवाब गजल। सुंदर सुंदर ख्याल।
चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,
अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.... क्या खूब लिखते है आदरणीय नीलेश जी, हमारे यहाँ तो अकाल पड़ा हुआ है और आपके यहाँ झमाझम बारिश हो रही है |
पैरहन और कितने बदलेगी?
रूह को जिस्म की पड़ी आदत.
वाह आदरणीय नीलेश जी वाह ... बहुत ही खूबसूरत अहसासों से सजी इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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