(फ ऊलन -फ ऊलन-फ ऊलन-फ ऊलन )
मुहब्बत में धोका उठाने चले हैं।
हसीनों से वह दिल लगाने चले हैं।
सज़ा जुर्म की वह न दे पाए लेकिन
मेरा नाम लिख कर मिटाने चले हैं।
लगा कर त अस्सुब का आंखों पे चश्मा
वो दरसे मुहब्बत सिखाने चले हैं ।
अदावत भी जिनको निभाना न आया
वो हैरत है उल्फ़त निभाने चले हैं ।
बहुत नाम है ऐबगीरों में जिनका
हमें आइना वो दिखाने चले हैं ।
अचानक इनायत न उनकी हुई है
वो कोई नया गुल खिलाने चले हैं ।
वो फ़िर उनके वादों पे कर के भरोसा
नई चोट तस्दीक़ खाने चले हैं ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहिब आदाब , गज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय तस्दीक़ अहमद जी आदाब,
लाजवाब ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें ।
आ.जनाब नीलेश नूर साहिब ,ग़ज़ल पर आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब ब्रजेश कुमार साहिब ,ग़ज़लमें आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आ. तस्दीक़ अहमद साहब,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
मतले में फिर इता दोष की सूरत बन रही है ..यदि ऊला में काफिया "खाने" लिया जाय तो दोष भी छूटेगा और प्रभाव भी बढेगा, ऐसा मुझे लगता है ..
मक्ते के ऊला में वो की जगह लो से शुरूअ करने से ... ख़ुमार अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं..जैसा विस्मयकारी प्रभाव उत्पन्न होगा.
यह शानदार ग़ज़ल आप से तरन्नुम में सुनने की इच्छा है ..उम्मीद है जल्दी ही कहीं मुलाक़ात होगी
सादर
वाह आदरणीय खूबसूरत ग़ज़ल कही है सादर..
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