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सोंच को इक तीर करती हैं ...

बह्र -212-221-221

सोंच को इक तीर करती है ।।

कुछ यूँ ये तस्वीर करती है।।

कुछ भी हो की बात कर और।

मन में हलचल पीर करती है।।

दर्द उलफत है ये सायद की।

दिल को रिसता नीर करती है।।

सुन सुनाई दे रहा कुछ यूँ।

ये हवा तपशीर करती हैं।।

बा वफ़ा या बेवफा ना वो।

फैसले तक़दीर करती है।।

जिंदगी भी बाद उलफत के।

पैरों में जंजीर करती है।।

खुद को पत्थर से रगड़ने के।

बाद नर्तन शमशीर करती है ।।

आमोद बिंदौरी / मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on March 11, 2018 at 3:14pm

जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

4थे शैर में 'तपशीर' का क्या अर्थ लिया है?

6ठे शैर में 'ज़ंजीर' के साथ रदीफ़ 'करती है'बात बेतुकी सी है, देखियेगा ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 11, 2018 at 2:53pm

आ. भाई आमोद जी अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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