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2122 1212 22/(112)
साथी उससे कोई खरा न हुआ
साथ गम ने दिया जुदा न हुआ

रोकती बस रही रज़ा तेरी
हमने चाहा बुरा,बुरा न हुआ

छल कपट से रहा कमाता जिसे
जऱ यूँ ही बह गया तेरा न हुआ

बस बनावट भरा लगा रिश्ता
जिसमें कोई कभी खफ़ा न हुआ

डोर दिल की बँधी रही जिससे
दूर है वह मग़र जुदा न हुआ

जिंदगी को सही समझ न सके
मुश्किलों से जो सामना न हुआ

बंद आँखों ने जो किया दीदार
आँखें खोली वो देखना न हुआ

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Mahendra Kumar on September 5, 2017 at 4:02pm

ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है आ. सतविन्द्र जी. आपके थोड़े से प्रयास से यह और बढ़िया हो जाएगी. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 3, 2017 at 12:35pm
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमन! प्रयास पर उपस्थित होकर अनुमोदन करने एवं उत्साहवर्धन करने के लिए तहेदिल शुक्रिया। ममार्गदर्शन के लिए भी सादर आभार। ठीक करने की कोशिश करता हूँ सादर।
Comment by Samar kabeer on September 3, 2017 at 12:02pm
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
चौथे शैर का ऊला मिसरा बह्र में नहीं है,उसी तरह आख़री शैर भी बह्र में नहीं है,देखियेगा ।

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"   आदरणीय मिथिलेश जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार.…"
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