"तेरे पिता उस संगठन से जुड़े हैं जो इन्हें देखना तक नहीं चाहता और तू कहता है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता?" कार्तिक आज भी उसी रेस्टोरेंट में बैठा था जहाँ सुमित ने कभी उससे ये बातें कही थीं। उसके हाथ में परवीन शाकिर की किताब थी तो ज़ेहन में ये ग़ज़ल, तुझसे कोई गिला नहीं है, क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है।
"क्या ख़ूब ग़ज़ल सुनाई तुमने। किसकी है?" न्यू ईयर की पार्टी में लोगों ने ज़ोया से पूछा जिसने अभी हाल ही में ऑफिस ज्वाइन किया था।
"परवीन शाकिर की।" यह पहली बार था जब उर्दू अदब से दूर-दूर तक कोई वास्ता न रखने वाले कार्तिक ने यह नाम सुना था।
ज़ोया एक भोली-भाली, ख़ूबसूरत और प्यारी सी लड़की थी जिसे देखते ही कार्तिक को प्यार हो गया था। वह उसे दिलो-जान से चाहता था। "ये लीजिए, बेसन के लड्डू। मेरी माँ ने बनाये हैं।" वह उसके पास जाने के बहाने ढूँढता था।
कार्तिक आज जिस रेस्टोरेंट में बैठा था उसके ठीक सामने एक और रेस्टोरेंट था जहाँ अक्सर ज़ोया आया करती थी। यदि आप इस रेस्टोरेंट की खिड़की वाली सीट पर बैठे हों तो आप सामने वाले रेस्टोरेंट में आने-जाने वालों को साफ़ देख सकते हैं। कार्तिक वहीं अकेले बैठा था।
"देख! तू जानता है न कि ज़ोया ऑफिस में सबसे दूरी बना के रखती है सिवाय हामिद के। सोच क्यों? क्योंकि यहाँ आदमी की क़ाबिलियत उसके नाम से तय होती है और कई बार मुहब्बत भी।" सुमित की बातें उसके कानों में गूँज रही थीं।
कार्तिक खिड़की की तरफ़ एकटक देख रहा था कि तभी ज़ोया रेस्टोरेंट से बाहर आयी। उसके हाथ में हामिद का हाथ था तो होठों पर भीनी सी मुस्कान। शादी के बाद ज़ोया और भी ख़ूबसूरत लग रही थी। उसके दूसरे हाथ में ग़ुलाब का फूल था जो शायद उसे हामिद ने दिया था। आज दोनों की पहली सालगिरह थी। उन्होंने टैक्सी ली और वहाँ से दूर निकल गए।
सुमित ने उसे पहले ही समझाया था, "नशा जब आदमी के अन्दर हो तो आदमी नशे में ही रहता है फिर इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि वह क्या पी रहा है। ये तेरी आठवीं कॉफ़ी है। उसे भूल और होश में आ!" मगर वह अब भी नशे में था। उसने कॉफ़ी की तरफ़ देखा, वह वैसी की वैसी ही भरी थी।
सामने लगी टीवी से फिर वही आवाज़ें आ रही थीं, "मुसलमानों की इस देश में कोई जगह नहीं। इन्हें हिन्दुस्तान से चले जाना चाहिए..." उसने कॉफ़ी का मग उठाया और ज़ोर से टीवी पर मारते हुए कहा, "और हिन्दुओं को पाकिस्तान से।"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना को मान देने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया आ. मोहित जी. दिल से शुक्रगुज़ार हूँ. सादर.
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. अफरोज़ ही. हार्दिक आभार. सादर.
सादर आदाब आ. समर सर. रचना पर उपस्थित हो कर मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आश्चर्य मुझे भी बहुत हुआ था फिर मुझे लगा कि शायद मेरी रचना में ही कोई कमी होगी जो यह एक भी प्रतिक्रिया पाने से वंचित रह गयी. खैर, बहुत ख़ुशी हुई कम से कम इसे पाठक तो नसीब हुआ. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आ. नीरज जी. सादर.
आदरणीय महेंद्र जी,
मुझे आश्चर्य है कि इस रचना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है.
इस विषय को कथा में प्रभावी ढंग से समेटने के लिए साधुवाद!
सादर
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