एक नवगीत
गायब हैं नकली रंगों में,
होली के हुडदंग.
नजर न आती आसमान में,
उड़ती हुई पतंग.
पड़ी ठण्ड जब रहे सिकुड़ते,
मिली न छत सबको,
मई जून में खूब तपाया,
सूरज ने हमको.
बारिश में बदली की चादर ,
होती देखी तंग
बड़े फ्लैट हैं, कारें लम्बी,
दिल उतना छोटा.
झुग्गी झोंपडियों के अन्दर,
धूप हवा का टोटा.
नहीं साथ में रहते हैं अब,
खटिया और पलंग
सजी नगर में है चौपाटी,
लगा हुआ मेला.
खड़ा गाँव की चौपालों में,
है बस नीम अकेला.
रहता तो इंसान साथ, पर,
दिखती नहीं उमंग.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी का ह्रदय से आभार
आदरणीय narendrasinh chauhan जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
बहोत खूब
आपका प्रोत्साहन पाकर अभिभूत हूँ आदरणीय Mohammed Arif जी, आपको गीत पसंद आया बहुत बहुत शुक्रिया
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